-आशीष वशिष्ठ

यूपी में राज्यसभा चुनाव में बसपा को पटखनी देने के बाद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ चैन की सांस ले रहे थे। जीत से प्रसन्न भाजपा नेताओं व कार्यकर्ताओं के मुंह में मिठाई मिठास अभी कम भी नहीं हुई थी कि बसपा सुप्रीमो मायावती ने सपा से अपनी दोस्ती जारी रखने का ऐलान कर भाजपाईयों का जायका बिगाड़ दिया। लोकसभा उपचुनाव में मुख्यमंत्री व उप मुख्यमंत्री के इस्तीफे से खाली दो सीटें गंवानी वाली भाजपा ने राज्यसभा चुनाव हिसाब बराबर करने का काम किया। राज्यसभा चुनाव में बसपा उम्मीदवार को जिताने के लिये सपा प्रमुख अखिलेश यादव भारी दबाव में थे। क्रास वोटिंग के चलते बसपा का उम्मीदवार हार गया।

यूपी में राज्यसभा की दसवीं सीट के लिये मचे घमासान के बीच कई सवाल अहम हैं। कुछ सवाल आज के लिये तो अनेक सवाल ऐसे हैं जिनका नाता भविष्य की राजनीति से है। भाजपा ने जिस तरह जोड़-तोड़ ओर यत्न इस सीट को जीतने और बसपा को हराने में किया वो कई सवाल व आशंकाए पैदा करता है। लोकसभा उपचुनाव में सपा-बसपा गठबंधन के हाथों में करारी शिकस्त खाने के बाद भाजपा बदली राजनीति के साथ मैदान में है। भाजपा इस गठजोड़ से डरी हुई है लेकिन उसने बचाव की बजाय फ्रंट फुट पर खेलने की रणनीति अपनाई। राज्यसभा चुनाव में भाजपा की आक्रामक राजनीति देखने को मिली।

भाजपा उपचुनाव में मिली हार के दर्द व अपमान को ढकने की भले लाख दलीलें दे, लेकिन एक बात साफ है कि सपा-बसपा का गठजोड़ भाजपा पर भारी है, ये तल्ख सच्चाई है। वर्ष 2014 के आम चुनाव की नतीजों पर नजर दौड़ाएं तो भाजपा ने जिन 71 सीटों पर विजय हासिल की उसमें से 15 सीटे ऐसी थी जिसमें जीत का अंतर एक लाख से कम था। संभल, सीतापुर, कौशांबी, बस्ती, गाजीपुर सीटों पर तो जीत का अंतर क्रमशः 5174, 51027, 42900, 33562 व 32452 है। वहीं 12 सीटें ऐसी हैं जिनमें जीत का अंतर डेढ लाख के अंदर है। अगर इन 27 सीटों में सपा-बसपा के वोट का प्रतिशत मिला दिया जाए तो भाजपा की हार तय है। सपा-बसपा के साथ कांग्रेस के वोट जोड़ दिये जाएं तो भाजपा की हार निश्चित मानिए। वहीं 12 सीटें ऐसी हैं जहां जीत का अंतर दो लाख के अंदर था। लबोलुबाब यह है कि यूपी की 80 में 39 सीटे ऐसी हैं जहां गठबंधन भाजपा को सीधी और मजबूत चुनौती देने की स्थिति में है। फिलवक्त सपा के सात, कांग्रेस के दो सांसद हैं। वहीं भाजपा के खाते 68 और सहयोगी पार्टी अपना दल के दो सांसद है। कैराना सीट से भाजपा सांसद हुकुम सिंह के निधन के बाद एक सीट खाली है।

2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 42.3 फीसदी वोट के साथ 71 सीटें हासिल की थी। मोदी लहर पर सवार होकर भाजपा का सहयोगी अपना दल भी वह दोनों सीटें जीतने में कामयाब रहा जो उसने लड़ी थीं। 22.2 फीसदी वोट के साथ समाजवादी पार्टी पांच सीटें जीतने में कामयाब रहीं। पार्टी की सभी पांच सीटें मुलायम सिंह यादव के परिवार को ही मिली हैं। कांग्रेस को 7.5 फीसदी वोट मिले और पार्टी ने सोनिया गांधी और राहुल गांधी की सीटें जीतीं। बीएसपी का वोट प्रतिशत 19.6 फीसदी रहा लेकिन उसे कोई भी सीट हासिल नहीं हुई। अगर बसपा, सपा और कंांग्रेस का वोट शेयर जोड़ दिया जाए तो वो 49.3 प्रतिशत बैठता है, जो भाजपा को मिले वोटों से काफी ज्यादा है।

2014 में भाजपा की जीत इतनी बड़ी थी कि भाजपा (और सहयोगी) का वोट शेयर 26 संसदीय सीटों में एसपी, बीएसपी और कांग्रेस के सम्मिलित वोट शेयर से भी ज्यादा था। छह-सात संसदीय क्षेत्रों में इन तीनों मुख्य पार्टियों का वोट शेयर भाजपा को मिले वोट से थोड़ा ही ज्यादाा था। सीधे शब्दों में कहें तो अगर तीनों दलों ने गठबंधन करके भाजपा के खिलाफ संयुक्त उम्मीदवार उतारे होते तो भी भाजपा आसानी से 30 लोकसभा सीटों पर जीत जाती। यहां यह दीगर है कि 2014 के चुनाव के दौरान प्रदेश में समाजवादी सरकार थी, वहीं देशभर में मोदी लहर के साथ बदलाव की बयान बह रही थी। पिछले चार सालों के मोदी सरकार के कामकाज देश की जनता के सामने है। तब और अब के हालात में काफी अंतर आ चुका है।

2017 के विधानसभा चुनाव में प्रदेश की जनता ने न सिर्फ अखिलेश के ‘काम बोलता है’ को नकार दिया, बल्कि यूपी के ‘लड़कों’ अखिलेश-राहुल के ‘यूपी को यह साथ पसंद है’ के नारे को भी खारिज कर दिया है। कुल 403 सीटों में से 324 पर बीजेपी गठबंधन, 54 पर एसपी-कांग्रेस गठबंधन, 19 पर बीएसपी और 6 सीटें अन्य के खाते में गई हैं। भले ही ये भाजपा का अब तक का सबसे बड़ा प्रदर्शन व सफलता थी, लेकिन 2014 लोकसभा चुनाव के मुकाबले वोट प्रतिशत गिरकर 39.67 फीसदी रह गया। बसपा को 22.23, सपा को 21.82 व कांग्रेस को 6.25 फीसदी वोट हासिल हुए। विधानसभा चुनाव मेें सपा, बसपा और कांग्रेस तीनों दलों को प्राप्त वोट (50.25) भाजपा को मुश्किल में डाल सकते हैं। 1993 का उदाहरण हमारे सामने है जब सपा-बसपा गठबंधन ने बाबरी मस्जिद के गिरने के एक साल के अंदर हुए उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव में भाजपा को करारी मात दी थी। तब यदि दोनों दलों ने एक दूसरे के खिलाफ काम न किया होता तो दलितों-पिछड़ों-मुसलमानों के गठजोड़ के आगे कोई दूसरा दल टिक नहीं सकता था। हालिया उपचुनाव में भाजपा को धूल चटाकर दोनों दलों को आत्मविश्वास आसमान पर है।

देखा जाए तो 2014 के लोकसभा और 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को मोदी लहर से अधिक सरकार विरोधी लहर और विपक्ष के बिखराव से ज्यादा फायदा मिला। 2012 में यूपी की सत्ता खोने के बाद से लगातार बसपा का राजनीतिक ग्राफ गिरा है। यूपी में लगातार भाजपा से पिछड़ रही सपा, बसपा और तमाम विपक्षी दलों ने देर से ही इस बात को समझ लिया कि अकेले भाजपा से नहीं लड़ा जा सकता। इसलिए यूपी की राजनीति के धुर विरोधी सपा और बसपा एकसाथ कदमताल को राजी हो गये। लोकसभा उपचुनाव और राज्यसभा चुनाव में दोनों दल दोस्ती का इम्तिहान लेते नजर आए। लेकिन इन दोनों के साथ ने भाजपा खेमे में बेचैनी का माहौल कायम करने का काम किया।

भाजपा किसी कीमत पर नहीं चाहेगी कि सपा, बसपा मिलकर लोकसभा चुनाव लड़ें। सपा बसपा के साथ कांग्रेस, रालोद और अन्य दल स्वाभाविक सहयोगी के तौर पर जुडेंगे। ऐसे में भाजपा के लिये मुकाबला कठिन से अति कठिन हो जाएगा। राज्यसभा चुनाव में भाजपा ने बसपा उम्मीदवार को हराने के लिये हर हथकंडा अपनाया। बसपा की हार के बाद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने सपा बसपा की दोस्ती में फूट डालने की नीयत से बयान दिया कि, सपा लेना जानती है देना नहीं। रणनीति के तहत भाजपा ने बसपा की हार के लिये सपा को जिम्मेदार ठहराने का प्रचार किया। लेकिन भाजपा की खुशी के गुब्बारे को बसपा सुप्रीमो मायावती ने अगले ही दिन पंचर कर दिया। मायावती ने सपा से दोस्ती बरकरार रखने के अपने इरादे साफ कर दिये हैं।

बसपा राजनीतिक तौर पर इस हालत में नहीं है कि वो सीधे भाजपा को टक्कर दे पाए। ऐसे में मायावती सपा के साथ से अपनी खोई जमीन और ताकत बटोरने की नीति पर काम कर रही है। उपचुनाव में सपा की जीत में बसपा की भूमिका किसी से छिपी नहीं है। उपचुनाव में जीत के बाद प्रदेश व देश की राजनीति में सपा बसपा की प्रतिष्ठा बढ़ी है। वहीं मायावती किसी हड़बड़ी में नहीं है। वह फूंक-फूंककर कदम रख रही है। इसलिए उसने राज्यसभा सीट पर हारने के बाद सपा से नाता तोड़ने की बजाय भाजपा पर कठोर वार किये। यूपी की कैराना लोकसभा सीट के लिए होने वाले उपचुनाव में बसपा उम्मीदवार के मैदान में उतरने की खबरें आ रही हैं।

भाजपा को भी बदले हालात का पूरा इल्म है। अगले लोकसभा चुनाव के होने में अभी करीब एक साल का वक्त है लेकिन भाजपा ने उन सीटों की पहचान कर ली है जिन पर उन्हें सबसे पहले ध्यान देने की जरुरत है। पंाच सीटे कन्नौज, मैनपुरी, बदायूं, फिरोजाबाद, आजमगढ़ में सपा, अमेठी और रायबरेली में कांग्रेस जीती थी। इन साल सीटों पर भाजपा प्रत्याशी थोड़े वोटों से चुनाव हार गए थे। लेकिन तेजी से बदल रही राजनीति के चलते अब भाजपा को एक-एक सीट पर बदली रणनीति से काम करने की जरूरत होगी।

भाजपा के बढ़ते कदमों को रोकने के लिए सूबे की राजनीति का पहिया तीन सौ साठ डिग्री पर घूम चुका है। धुर विरोधी सपा-बसपा गलबहियां डाले घूम रहे हैं। वहीं मोदी और योगी सरकार का कामकाज भी निशाने पर है। अगर बसपा-सपा की दोस्ती लोकसभा चुनाव में परवान चढ़ी और उसे कांग्रेस व अन्य दलों का सहयोग मिला तो बीजेपी के लिये यूपी की लड़ाई आसान नहीं होगी। वैसे भाजपा इस नये गठबंधन की काट ढूंढने में लग गयी है।