-तारकेश्वर मिश्र

एक बार फिर नक्सलियों ने जवानों पर हमला किया है। बीते मंगलवार को सुकमा में नक्सली हमले में नौ जवान शहीद हो गये। अब तक सैंकड़ों सुरक्षाबलों को नक्सली हमले में अपनी जान गंवा चुके हैं। सुरक्षाबलों की जवाबी कार्रवाई में सैंकड़ों नक्सली भी मारे जा चुके हैं। यह अजीब विडंबना है कि जो बल देश को मजबूत और खूबसूरत बनाने में लगना चाहिए था, वह आपस में लड़ने में जाया हो रहा है। इस लड़ाई में सबसे अधिक नुकसान आम जनता को हो रहा है। वहां से आ रही खबरें बताती हैं कि आम लोग एक ओर नक्सलियों को संरक्षण देने के आरोप में सुरक्षाबलों द्वारा प्रताड़ित किये जाते हैं तो दूसरी ओर नक्सली उन्हें मुखबिरी के अरोप में ‘दंडित’ करते हैं। झारखंड में नक्सली हिंसा तेजी से कम हुई है। नक्सलवाद चंद छिटपुट जगहों तक सिमटकर रह गया है। परंतु, देश के दूसरे हिस्सों में नक्सली आज भी तांडव मचा रहे हैं।

इतिहास के पन्ने पलटे तो नक्सलवाद की लड़ाई दशकों से चल रही है। अपने लोकतंत्र की एक बड़ी कमी यह रही है कि देश का बड़ा तबका आज भी विकास की धारा और न्याय से वंचित है। कड़वी हकीकत यह भी है कि देश में दर्जनों गांवों को विकास के नाम पर उजाड़ दिया गया। विस्थापित लोग दर-दर की ठोकरें खाने पर मजबूर होकर भटक रहे हैं। सुरक्षा और न्याय की जिम्मेदारी निभाने वाले आए दिन भ्रष्टचार और शोषण के आरोप में पकड़े जा रहे हैं। एक ओर देश में अरबपतियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है तो दूसरी ओर किसानों की आत्महत्या के मामले भी उसी रफ्तार से बढ़ रहे हैं। भूख और साधारण बीमारियों से लोग बड़ी संख्या में मर रहे हैं। जाहिर सी बात है कि इन कारणों से विद्रोह की भावना पनपेगी। परंतु, इन सबके बावजूद यह भी सही है कि हिंसा से यहां कोई रास्ता नहीं निकलने वाला है।

पिछले 5 साल में नक्सली हिंसा की 5960 घटनाएं हुई हैं। इनमें 1221 नागरिक, 455 सुरक्षाकर्मी और 581 नक्सली मारे गए हैं। नोटबंदी के बाद माना जा रहा था कि नक्सलियों की कमर टूट गई है, लेकिन सुकमा की घटना ने एक बार फिर नक्सल हिंसा को सुलगा दिया है। गृह मंत्रालय से मिली जानकारी के अनुसार साल 2012 से 2017 तक नक्सली हिंसा के चलते देश में 91 टेलीफोन एक्सचेंज और टावर को निशाना बनाया गया तो 23 स्कूलों को भी नक्सलियों की बर्बरता झेलनी पड़ी। फोर्स पर हुए इन ताजा हमलों से केवल उसकी नाकामियों की कहानी नहीं लिखी जा सकती। सच ये है कि आज फोर्स भी नक्सलियों की पैठ वाले ऐसे इलाकों में घुस चुकी है और बहुत से इलाकों पर तो अपना कब्जा भी हासिल कर चुकी है।

नक्सली चाहे लाख भगत सिंह, चे ग्वारा से माओ तक का नाम लेते रहें, हमारी आज की परिस्थितियां बिल्कुल अलग हैं। हमारे लोकतंत्र में इतनी गुंजाइश हमेशा से रही है कि हम बिना हिंसा के ही अपना हक हासिल कर सकें। आजादी के बाद हुए कई आंदोलनों से यह साबित होता रहा है कि अहिंसक रास्ते से भी हुकूमत को झुकाया जा सकता है और अपनी जायज मांग मानने पर मजबूर किया जा सकता है। अन्ना हजारे का आंदोलन इसका सबसे बड़ा सबूत है।
सरकार को भी यह मानना होगा कि नक्सलवाद को हथियार के बल पर नहीं रोका जा सकता है। इसके लिए विकास और न्याय का रास्ता बनाना होगा। सरकार के ही आंकड़े बताते हैं कि रोजगार के अवसर बढ़ने और शासन व न्याय प्रक्रिया के पारदर्शी व सरल होने से लोग खुद ही हिंसा का रास्ता छोड़ने लगते हैं। भ्रष्टाचार दूर हो, लोगों को रोजगार मिले, सभी को शिक्षा और रोजगार के समान अवसर मिलें तो कोई कारण नहीं है नक्सलवाद समाप्त न हो। हां, बरगलाने वाले तत्वों पर कार्रवाई भी साथ में जरूरी है। इस दिशा में दूसरे राज्य झारखंड से सबक ले सकते हैं।

नक्सलवादी समस्या आज किसी अकेले राज्य की समस्या नहीं है, बल्कि इसने कई भारतीय राज्यों की एक सामयिक आन्तरिक सुरक्षा समस्या का रूप अख्तियार कर लिया है । इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि इसे वर्तमान की अहम समस्या के रूप में देखा जाए और नासूर बन चुके इस रोग का नए सिरे से सभी राज्यों के दूरदर्शी समन्वित सहयोग से इलाज किया जाए । सम्प्रति दूरदर्शी उपायों से नक्सली विचारधारा को फैलने से रोका जा सकता है और उसका स्थायी समाधान निकल सकता है ।

नक्सलियों के इन हमलों से फिर यह साबित हो गया है कि रणनीति बनाने और अपनी खास शैली में गुरिल्ला लड़ाई लड़ने वाले इन दरिंदों से निपटने के लिए पुलिस एवं सुरक्षा बलों को छापामार लड़ाई में पारंगत होना ही होगा। शासन और व्यवस्था की निरंतर अनदेखी के कारण उपेक्षित क्षेत्रों में नक्सली अपनी गतिविधियों को खतरनाक ढंग से बढ़ाते जा रहे है। नक्सली शोषित आदिवासियों और ग्रामीणों को हिंसक संघर्ष के लिए उकसा रहे हैं। उन्हें बाकायदा ट्रेनिंग भी दे रहे है। देशभर में ऐसे क्षेत्र बढ़ते जा रहे हैं जहां नक्सलियों का दबदबा है। एक अनुमान के अनुसार देश के 20 राज्यों के लगभग 170 जिलों में नक्सली अपने संगठन का विस्तार कर चुके हैं।

अपने प्रभाव वाले क्षेत्रों में नक्सली सत्ता प्रतिष्ठानों को भी चुनौती देने लगे हैं। वे लोगों से लेवी वसूल करते एवं समानान्तर अदालतें लगाते हैं। उनके अदालत में दी जाने वाली सजाए घोर उत्पीड़क एवं अमानवीय होती है। सत्ता का संरक्षण एवं प्रशासन तक पहुंच न हो पाने के कारण स्थानीय लोग अब नक्सलियों पर ही विश्वास करने लगे हैं। अशिक्षा और विकास कार्य की उपेक्षा ने स्थानीय लोगों एवं नक्सलियों के बीच के गठबंधन को और भी मजबूत बना दिया है। नक्सली आंतरिक सुरक्षा के लिए एक बड़ी चुनौती बन चुके हैं।

नक्सली समस्या केवल कानून व व्यवस्था से जुड़ा मामला ही नहीं है। भावनात्मक रूप से नक्सलियों ने खुद को गरीब आदिवासियों और ग्रामीणों का खैरख्वाह स्थापित कर दिया है। डर का लालच से स्थानीय लोगों का समर्थन व सहानुभूति उन्हें हासिल है। सुरक्षा बलों की विवशता यह है कि आम लोगों को ढाल बना कर हमला करने वाले नक्सलियों को वे करारा जवाब नहीं दे सकते। निर्दोष लोगों की जान जाने का खतरा तो रहता ही है, मानवाधिकार का सवाल उठा कर हल्ला करने वाले संगठनों की समस्या अलग है। ऐसे में रास्ता क्या है? पुलिस और नागरिकों के मनोबल को बढ़ाने के लिए जो भी व्यक्ति नक्सलवादियों को पकड़वाए उनसे संघर्ष करे, हथियार के भण्डार पकड़वाए ऐसे व्यक्तियों को सम्मानित करना चाहिए । सरकार ने यदि सच्चे मन से उपर्युक्त तथ्यों पर सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाना आरम्भ किया, तो नक्सली वास्तव में लोकतांत्रिक व्यवस्था में शामिल हो सकते है । यह कहा जा सकता है कि नक्सली संगठन अपने आदर्शवादी उद्देश्यों की पूर्ति के लिए हिंसा का जो रास्ता अख्तियार कर रहे है उसे किसी भी प्रकार से उचित नहीं माना जा सकता।

हमें समझने की आवश्यकता है कि नक्सल-माओवाद मसले का हमेशा से एक राजनीतिक कोण रहा है। लेकिन गृह मंत्रालय अपनी समन्वित कार्रवाईय बेहतर खुफिया प्रबंधन, केंद्रीय बलों में टीथ-टू-टेल अनुपात सुधार कर और राजनीतिक पहल के जरिये उग्रवाद की पहुंच व प्रभाव को कम कर सकता है। इसके साथ, गृह मंत्रालय को अंतर्राज्यीय परिषद और क्षेत्रीय परिषदों को पुनर्सक्रिय करना होगा, खुफिया एजेंसियों को जीवंत-सक्रिय करना, सुरक्षा अभियानों में तकनीक का भरपूर सहयोग करना, अपराध न्याय प्रणाली में सुधार और पुलिस सुधार जैसे काम अरसे से अटके पड़े हैं। सरकार को भी कानून-व्यवस्था की समस्या से ऊपर उठकर इनकी मूलभूत समस्याओं को दूर करने के प्रयास करने चाहिए। नक्सली विचारधारा से प्रभावित गरीब एवं मजदूर जनता को राष्ट्र की मुख्य-धारा से जोड़ने के लिए हमारे लोकतांत्रिक अंगों-केन्द्र एवं राज्य सरकारों, मीडिया और गैर-सरकारी संगठनों सभी को मिलकर सामूहिक प्रयास करने की आवश्यकता है।

-लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं