रविश अहमद
निजी स्कूल संचालक स्वयंभू सरकार हैं और इनके प्रबन्धक व प्रधानाचार्य किसी सुप्रीम पॉवर से कम नही क्योंकि इन पर भारत सरकार अथवा किसी प्रदेश सरकार का कोई आदेश कार्य नही करता बल्कि अपने ग्राहक अर्थात शिक्षा ग्रहण करने वाले छात्रों के अभिभावकों के साथ इनका व्यवहार किसी तानाशाह से कम नही होता। अपने स्कूल स्टाफ को उनकी योग्यता के अनुसार वेतन न देना और अभिभावकों का भरपूर आर्थिक व मानसिक शोषण करने की इनकी शैली ने शिक्षण कार्य को व्यवसाय बना दिया है यही कारण है कि हम अभिभावकों को ग्राहक का नाम दे रहे हैं।
प्रत्येक वर्ष एडमिशन व रिएडमिशन में बढोत्तरी, फीस में बढोत्तरी तथा आधुनिक व्यवस्थाओं के नामपर अभिभावकों से खुले हाथों लूट करना तथा किसी के द्वारा आपत्ति जताये जाने पर उसके बच्चे का पूरा साल बर्बाद कर भविष्य से खिलवाड़ करना स्कूल संचालकों का ऐसा मूलभूत अधिकार बन गया है जो भारतीय संविधान की प्रस्तावना जिसमें प्रत्येक नागरिक के कुछ मौलिक अधिकारों का ज़िक्र है, उसके स्वरूप को ही रौंद देता है।
गत वर्ष सत्तासीन होते ही भाजपा की योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में प्रदेश सरकार ने कुछ आवश्यक दिशा निर्देश जारी किये थे जिनमें स्कूल की प्रत्येक मनमानी पर लगाम कसने के आदेश और अभिभावकों सहित अध्यापन कार्य करने वालों के लिये राहत निहित थी किन्तु यह आदेश किस संस्थान द्वारा अमल में लाया गया यह आज भी एक प्रश्न है जो सरकार के ही वजूद पर सवाल खड़ा करता है।
हर बार की तरह आदेश जारी होते समय ही चल रही रिएडमिशन प्रक्रिया में स्कूल की एडमिशन, रिएडमिशन व मासिक फीस भी बढ़ाई गयी और वार्षिक शुल्क भी वसूला गया। बच्चों की ड्रैस भी नयी बदलवायी गयी और हमारे द्वारा लगातार इस सम्बन्ध में लेख भी लिखे गये लेकिन किसी के द्वारा संज्ञान लिया जाना उचित नही समझा गया।
शिक्षण संस्थान संचालकों में कुछ स्वयं नेता हैं तो कुछ के पीछे राजनीतिक संरक्षण है और जहां यह नही है वहां सिस्टम को मैनेज करने की कुव्वत वाले कुशल प्रबन्धक ।
अब आम आदमी जो इस प्रतियोगी शिक्षा के फेर में कहीं उनके नौनिहाल पिछड़ न जायें इस सोच के साथ लगातार शिक्षण की फैक्ट्रियों में पिसने को मजबूर हैं उनके लिये राहत का कोई सामान नज़र नही आता है।
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