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पहले साबित करना था मुस्लिम हितैषी, अब हिन्दू होने का प्रमाण!

रविश अहमद

भारतीय राजनीति का इससे दुखःद अध्याय शायद ही कभी रहा हो जब रोटी, कपड़ा और मकान, भुखमरी, कुपोषण और हर हाथ को काम, शिक्षा और विकास जैसे गम्भीर मूलभूत मुद्दों की जगह राजनेता यह साबित करने में लग जायें कि वह स्वयं हिन्दू हैं या मुसलमान! अफसोस की बात तो यह है कि राजनेताओं के इन बेतुके मुद्दों पर जनता भी ऐसे खुश होती है जैसे सबसे पहले यही साबित होना ज़रूरी है कि यह देश किसका है कौन हिन्दू हैं कौन मुसलमान? किसको इस देश में रहने का हक़ है किस को नही। कहां पूजा होनी है और कहां नमाज़? कौन जनेऊ पहना है और कौन टोपी? जनता भी वास्तविक मुद्दों पर न बहस चाहती है न काम। बस पहले यें मसले हल हो जायें फिर बच्चों के भविष्य और रोटी की बात करेगें।

जनता को इन भ्रमित करने वाले नकली भाषणों पर ऐसे मज़ा आने लगा है जैसे फिल्म के क्लाईमैक्स पर आता है। फिल्म में तो केवल 3 घंटे बर्बाद होते हैं यहां बच्चों का पूरा भविष्य चौपट होता नज़र आ रहा है बावजूद इससे नागरिकों की ग़ैर ज़िम्मेदारी का इससे बड़ा प्रमाण नही हो सकता।

आजकल गुजरात चुनाव में कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने जा रहे राहुल गांधी खुद को हिन्दू साबित करने में लगे हैं। जनेऊ धारण करते हैं, मन्दिरों में माथा टेक रहे हैं कभी पहले मुसलमानों का तुष्टीकरण करने के भी भरपूर प्रयास कांग्रेस करती थी अब यह कार्य धीरे धीरे भाजपा के हिस्से में आने लगा है।

भाषणों में भी धर्म का ज़िक्र करना नही भूलते। क्या यह सब जनता को बेवकूफ बनाया जाना नही है अब किसी को भाजपा के हिन्दुत्व और घर वापसी एजेंडे से एतराज़ नही होना चाहिये क्योंकि कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी अब उसी राह पर हैं या यूं कहें कि जनता की नब्ज़ पहचान चुके हैं वह विशुद्ध हिन्दू हैं या पैतृक रिश्ते के अनुसार पारसी या मुसलमानों का तुष्टीकरण करते करते मुसलमान हो चुके हैं इसका जवाब अब भाजपा देगी। बस यही है आज राजनीति!

क्या आपने हमने कभी सोचा है कि जंग ए आज़ादी में हज़ारों लाखों की तादाद में शहादत देने वालों का बस एक ही मज़हब था भारत। एक आज़ाद भारत जहां हिन्दू मुसलमान सिक्ख ईसाई पारसी जैन बौद्ध सब आपस में प्यार से रहें और उनकी पहचान उनके देश के नाम से हो न कि धर्म के नाम से। आज़ादी के मतवालों को ये ख़बर न थी कि उनके नामों पर भी अलग अलग राजनीतिक दल और समुदाय अपने हक़ जतायेगें। उन्हें नही मालूम था कि अंग्रेज़ों के ज़ुल्म से ज़्यादा ज़ुल्म खुद भारतीय लोग धर्म समुदाय के नाम पर एक दूसरे पर करेंगे। हक़ीक़त मे अगर उन लोगों को यह आभास मात्र भी होता कि देश की आने वाली नस्लें उनकी तरह नही बल्कि अपने आने वाली नस्लों के लिये खुशहाली की जगह तंगदिली और मुहब्बत की जगह नफरतों को सींचेगी तो वें अमर शहीद शहादत न देते।

इसमें दो राय नही कि हिन्दुत्व के रास्ते भारतीय जनता पार्टी ने न केवल सत्ता के शीर्ष तक पंहुचने में सफलता अर्जित की बल्कि पूरे देश में एक ऐसा माहौल खड़ा कर दिया जिसमें समुदायों के बीच एक खतरनाक खाई बनादी है जिसमें गिरने वाला किसी भी समुदाय का बचता नही है वो खाई है मुद्दों का सिरे से गायब होना और सिर्फ धर्म पर बहस में उलझे रहना।

राहुल गांधी की रणनीति खुद इसमें उलझकर सुलझाने की है या वास्तव में वह भी अब इसी तर्ज पर राजनीतिक सफलता अर्जित करेगें भविष्य में स्पष्ट हो ही जायेगा।

किन्तु तब तक भविष्य कितना अंधकारमय हो जायेगा यह आशंका भी रूह कंपकंपाने के लिये काफी है।

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