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नोटबंदी के दुष्परिणामों से दूसरे देश लें सबक़: अर्थशास्त्री भास्कर चक्रवर्ती

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा पिछले साल लागू की गयी नोटबंदी के पक्ष-विपक्ष में बहसों का दौर अभी थमा नहीं है। पीएम मोदी ने आठ नवंबर 2016 को तत्काल प्रभाव से उसी रात 12 बजे से 500 और 1000 रुपये के पुराने नोटों को बंद करने की घोषणा की थी। नोटबंदी के एक साल पूरे होने पर अमेरिका के टफ्ट्स यूनिवर्सिटी के अर्थशास्त्री भास्कर चक्रवर्ती ने हार्वर्ड बिजनेस रिव्यू में मोदी सरकार के इस फैसले की समीक्षा की है। जब नोटबंदी लागू हुई तो देश की कुल नकदी का करीब 86 प्रतिशत 500 और 1000 रुपये के नोटों के रूप में था। नोटबंदी की वजह से पूरे देश में अफरा-तफरी मच गयी थी। अनगिनत लोगों की नौकरियां गईं, कइ दर्जन लोगों की मौतों के लिए नोटबंदी को जिम्मेदार ठहराया गया। प्रोफेसर भास्कर चक्रवर्ती के अनुसार नोटबंदी बगैर उचित सोच-विचार के लागू किया गया फैसला था और इससे भारतीय अर्थव्यवस्था खासकर गरीबों पर नकारात्मक असर पड़ा। भास्कर चक्रवर्ती के अनुसार नोटबंदी के फैसले से दुनिया के बाकी देश चार सबक सीख सकते हैं।

सबक 1 : सावधानी से करें विशेषज्ञों का चुनाव- भास्कर चक्रवर्ती के अनुसार किसी भी नीति के आनुषंगिक परिणाम होते हैं इसलिए उन्हें लागू करने से पहले कुछ बुनियादी कवायदें जरूरी हैं। किसी भी नीति को लागू करने से पहले अर्थव्यवस्ता, कारोबार और तकनीक क्षेत्र के विशेषओं का समेकित विचार जानना जरूरी है। भारत जैसी जटिल आर्थिकी वाले देश में ये और भी महत्वपूर्ण हो जाता है। भास्कर ने लिखा है कि भारत ने नोटबंदी लागू करने के खिलाफ रघुराम राजन जैसे काबिल आदमी की राय को नकार दिया। भास्कर लिखते हैं कि अभी तक ये पूरी तरह साफ नहीं है कि नोटबंदी के लिए मोदी सरकार ने किन विशेषज्ञों से राय ली थी। भास्कर लिखते हैं कि नोटबंदी जैसे दूरगामी प्रभाव लेने से पहले विशेषज्ञों की राय, आंकड़ों और उनके विश्लेषण जानने की पारदर्शी प्रक्रिया होनी चाहिए और इसे आधिकारिक रूप से दर्ज भी किया जाना चाहिए भले ही इस गुप्त रूप से किया जाए। भास्कर मानते हैं कि लोकतांत्रिक देशों की सरकारों की जवाबदेही है कि वो अपने फैसलों के पीछे की तैयारी से जुड़े सवालोंका जनता को जवाब दें।
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सबक 2 : बुनियादी आंकड़ों की अनदेखी न करें- भास्कर के अनुसार सभी नीतियों का उद्देश्य जनकल्याण होता है लेकिन हर नीतिगत निर्णय के कुछ नकारात्मक पक्ष होते हैं। जन साधारण के फायदे में लिए गये फैसले समाज के किसी एक वर्ग के लिए भारी साबित होते हैं। भास्कर के अनुसार इसलिए किसी भी नीतिगत फैसले के पहले तथ्य आधारित नफा-नुकसान का मुल्यांकन जरूरी है। भास्कर के अनुसार किसी भी नीति को लागू करने से पहले उससे जुडद़े बुनियादी आंकड़ों का विश्लेषण कर लेना चाहिए। अगर नीति को लागू करने में जोखिम ज्यादा है तो आगे बढ़ने से पहले उस पर खड़े किए गए सवालों के जवाब ढूंढने चाहिए। नोटबंदी लागू करने की सबसे बड़ी वजह भ्रष्टाचार और कालेधन पर लगाम लगाने की मंशा बतायी गई। भास्कर के अनुसार नरेंद्र मोदी की कई विशेषज्ञों ने इस “साहसी” फैसले के लिए तारीफ भी की और हालिया प्रादेशिक चुनावों के नतीजे से इसकी लोकप्रियता का भी प्रमाण मिल गया लेकिन इससे जुड़ी कुछ बुनियादी बातों का ख्याल नहीं रखा गया।

भास्कर के अनुसार सबसे पहले, एक झटके में 86 प्रतिशत नकदी को गैर-कानूनी घोषित करने का फैसले को लेकर सरकार को पहले ही अति-सावधान हो जाना चाहिए था क्योंकि इससे अर्थव्यवस्था में अफरा-तफरी मचने की आशंका थी। इसके अलावा भारत का 90 प्रतिशत कामगार वर्ग असंगठित क्षेत्र में काम करता है जिसे नकद मेहनताना मिलता है। देश की अर्थव्यवस्था पर पड़नी वाली इस दोहरी मार को नजरंदाज करना मुश्किल था। तीसरा, आयकर विभाग के हालिया विश्लेषण के अनुसार भारतीय अर्थव्यवस्था में अघोषित आय कुल अर्थव्यवस्था का करीब छह प्रतिशत है। यानी नोटबंदी का निशाना ही गलत था। साफ है कि देश की ज्यादातर अघोषित आय गैर-नकदी संपत्ति के रूप में मौजूद है। ये सारे आंकड़े पहले से मौजूद हैं और नोटबंदी लागू करने वालों को इन्हें देखकर थम जाना चाहिए था।

सबक 3 : मानवीय व्यवहार की ध्यान रखें- भास्कर के अनुसार किसी भी नीति को लागू करने से पहले उसकी जमीन पर उतारने के दौरान आने वाली व्यावहारिक दिक्कतों पर जरूर विचार कर लेना चाहिए। यानी नीति-निर्धारकों को ये सोच-विचार कर लेना चाहिए कि जमीनी स्तर पर हाड़-मांस के बने लोग किस तरह से बरताव करेंगे। भास्कर के अनुसार नीति निर्धारण का यह अहम पहलू है कि आप आम बरताव को कितने सटीक तरीके से पहले से भांप लेते हैं। भास्कर के अनुसार नोटबंदी के मामले मे मोदी सरकार ऐसा करने में चूक गयी। सरकार ये नहीं भांप पायी कि लोग आसानी से पैसे नहीं छोड़ेंगे। उन्होंने नोटबंदी से बचने के लिए कई चोर रास्ते निकाल लिए। मसलन, नोटबंदी के बाद मोटा कालाधन रखने वाले कुछ लोगों ने दलालों को कुछ प्रतिशत के कमीशन पर अपने पैसे दे दिए जिन्होंने आम लोगों को छोटी-छोटी रकम के तौर पर उस पैसे को बांट कर सफेद कर लिया। भास्कर ने आरबीआई के हालिया आंकड़ों का हवाला दिया गया है जिनमें नोटबंदी के बाद 500 और 1000 रुपये में मौजूद करीब 99 प्रतिशत राशि बैंकों में वापस आ गयी। भास्कर के अनुसार इस आंकड़े से साफ है कि नोटबंदी से कालेधन के रद्दी में बदल जाने का बुनियादी तर्क गलत साबित हुआ।

सबक 4 : चांदी की डिजिटिल गोली से सावधान रहें- भास्कर के अनुसार मोबाइल संचार और डिजिटल तकनीक के प्रसार से कई बार ये भ्रम हो जाता है कि ये चीजें रातोंरात बदलाव ला सकती हैं। इसकी एक वजह ये भी है इन चीजों पर जिन कंपनियों का कब्जा है वो अपने प्रोडक्ट और टेक्नोलॉजी को हर बीमारी की रामबाण दवा के तौर पर पेश करती हैं। भास्कर मानते हैं कि मोबाइल और डिजिटल टेक्नोलॉजी व्यवस्था को बेहतर बनाने में काफी मददगार हैं लेकिन बगैर बुनियादी तैयारी के इन पर पूरी तरह निर्भर होना उचित नहीं। भास्कर मानते हैं कि नोटबंदी के मामले में भी यही हुआ। नोटबंदी के बाद जब मोदी सरकार नकदी की कमी की भरपाई करने में विफल रही तो उनसे अपना एजेंडा बदलते हुए इसे अर्थव्यवस्था के डिजिटलीकरण की दिशा में उठाया गया कदम बताना शुरू कर दिया। मोदी सरकार ने भारत को कुछ ज्यादा ही तेजी से डिजिटल युग में धकेलना शुरू कर दिया। भास्कर के अनुसार आरबीआई के ताजा आंकड़ों के अनुसार नोटबंदी के समय तो देश में डिजिटल लेन-देन में बढ़ोतरी हुई क्योंकि शुरू के कुछ महीनों में लोगों के पास दूसेर विकल्प नहीं थे लेकिन बाद में इसमें धीरे-धीरे कमी आती गई। भास्कर लिखते हैं कि ये समझ पाना मुश्किल है कि एक पेमेंट प्लेटफॉर्म को बढ़ावा देने के लिए 86 प्रतिशत नकदी को बंद कर देने का फैसला समझ से बाहर है।

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