आसिफ मिर्जा
सुलतानपुर। सफलता का झंडा फहराकर कुछ महिलाएं आधी आबादी के लिए प्रेरणा स्रोत बन गयी हैं। यह महिलाएं किसी की पहचान की मोहताज नही हैं। विभिन्न क्षेत्रोें में महिलाएं अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा रहीं हैं। पत्रकार टीम ने प्रसाशनिक महिला अधिकारियों और समाजसेवियों से अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर कई पहलुओं पर बातचीत किया।

 2014 बैच की डिप्टी एसपी नवीन शुक्ला में लंभुआ सर्किल की सीओ हैं। वह दो नौकरी छोड़कर प्रसाशनिक सेवा में आयी हैं। स्वास्थ्य शिक्षा अधिकारी एवं वाणिज्यकर अधिकारी  के रूप में उन्होंने सेवा दी है। उनके पिता सूर्य प्रताप शुक्ला सीडीओ के पद से नेवृत्त हुएं हैं। सीओ लंभुआ बताती हैं कि वह छह बहने और दो भाई हैं। उनके अलावा भाई और एमक प्रसाशनिक सेवा में हैं। पिता को अपना आदर्श मानती हैं। कहतीं हैं कि उनके पिता कभी बेटा और बेटी में भेद नहीं किया है। सबकी समान रूप में परवरिश की। आधी आबादी को संदेश देते हुए कहा कि महिलाएं अपने आप को कभी कमजोर न समझें, डट कर मुकाबला करें। विपरीत हालत में अपने आत्म विश्वास को जगाकर संघर्ष करने में खुद में क्षमता लायें। सफलता उनके कदम चूमेगी। वह दिन अब दूर नही जब बेटियां अपना झंडा गाड़ेगीं। डिप्टी जेलर आरती पटेल-जिला कारागार की पहली महिला डिप्टी जेलर आधी आबदी की प्रेरणा स्रोत हैं। उन्होने नौकरी के साथ विभागीय अनापत्तिी लेकर इतिहास विषय में पीएचडी की उपाधी ली हैं। बचपन में उन्हें जेल से डर लगता था। जेल को  लेकर तमाम भ्रांतिया हैं, लेकिन यह जिंदगी का कटु अनुभव मिला। सुधारात्मक कार्य करने की अवसर को वह श्रेष्ठ कार्य मानती हैं। उनका कहना है कि बेटियों को बचपन से निडर बनाना चाहिए। अवसर मिले तो बेटियां क्या कुछ नही कर सकतीं हैं। उनके पति डा. अनुज पटेल गनपत सहाय पीजी काॅलेज में सहायक प्रोफेसर के रूप में कार्यरत हैं। तीन साल की बेटी की परवरिश में पति-पत्नी बराबर के भागीदार रहतें हैं। समासेविका पूजा कसौधन बैटी बचाओं अभियान चलाकर सुर्खियों में आयीं समाज सेविका पूजा कसौधन का मानना है कि समाज का नजरिया बदल रहा है, लेकिन अभी भी कन्याओं को लेकर दोहरा मापदण्ड अपनाया जा रहा है। भ्रूण हत्या को रोकने के लिए उनके स्तर पर जागरूकता अभियान चलाया जा रहा है। जिला पंचायत अध्यक्ष ऊषा सिंह कहती हैं कि लड़के और लड़कियों में कोई भेद नही रखना चाहिए। उन्होने कडा संघर्ष कर जिले की प्रथम कुर्सी पर काबिज हुई है। ऐसे ही महिलाओं को संघर्ष कर आगे बढना चाहिए।

महिला सशक्तीकरण की बाधा हैं पुरानी मान्यतांए

महिलाओं को लेकर चली आ रही पुरानी मान्यातायें उनके विकास में बाधा बन गयी है। जिसके चलते महिलायें निश्चित दायरे में बंध जाती है पुरूष वर्ग अपनी आवश्यकता के अनुसार उनका इस्तेमाल करता है। नगर निवासी सोशल वेलफेयर विभाग में उच्च पद पर आसीन अजिता पाण्डेय का कहना है कि महिलाओं में कामयाबी के सभी गुण है। बहुत सी महिलाओं ने इस बात को साबित भी किया है। फिर भी समाज ने विभिन्न अन्धविश्वास एवं पुरानी मान्यताओं से उनके पैरों को जकड़ रखा है। अभी भी बहुत से स्थानों पर माना जाता है कि महिलायें खाना बनाने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं कर सकती है। फिर वर्तमान परिवेश में कुछ ऐसी बातें है जिनसे महिला सशक्तीकरण की उम्मीद जगी है। महिलाओं एवं लड़कियों की अनेक बेटियों से बांध दिया गया है। रात को बाहर मत निकलों। यह लड़कियों का काम नही है। तुम सिर्फ खाना बनाने पर जोर दो आदि कुछ इस तरह के शब्द हैं जिनसे महिलाओं का आत्मविश्वास टूटता है।

सिर्फ उत्सव बनकर ही न रह जाये महिला दिवस

आज महिला दिवस है। अमेरिका में सोशलिस्ट पार्टी के आहवान पर यह दिवसर सर्व प्रथम 104 वर्ष पूर्व 28 फरवरी 1909 में मनाया गया था, इसके बाद यह फरवरी माह के आखिरी रविवार को मनाया जाने लगा। 1910 में सोशलिस्ट इण्टरनेशनल के कोपेनहेगन के सम्मेलन में इसे अन्तर्राष्ट्रीय दर्जा दिया गया। उस समय इसका प्रमुख ध्येय महिलाओ को वोट देने का अधिकार दिलवाना था क्योंकि उस समय अधिकांश देशों में महिलाओं को वोट देने का अधिकार नहीं था। वर्ष 1970 में रूस की महिलाओं ने महिला दिवस पर रोटी और कपडे के लिए हडताल पर जाने का फैसला किया। यह हडताल भी ऐतिहासिक थी। जार ने सत्ता छोडी, अन्तरिम सरकार ने महिलाओं को वोट देने के अधिकार दिये। उस समय रूस में जुलियन कैलेण्डर चलता था और बाकी दुनिया में ग्रेगेरियन कैलेण्डर। इन दोनों की तारीखों में कुछ अन्तर है। जुलियन कैलेण्डर के मुताबिक 1970 की फरवरी का आखिरी रविवार 23 फरवरी को था जबकि ग्रेगेरियन कैलेण्डर के अनुसार उस दिन 8 मार्च थी वर्तमान में रूस समेत पूरी दुनियां में ग्रेगेरियन कैलेण्डर चलता है, इसीलिए 8 मार्च को महिला दिवस के रूप में मनाया जाने लगा।