कोलकाता अपने दाहिने पैर को क्रीज़ से बाहर बढ़ाते हुए बड़े ही शानदार तरीके से गेंद को बॉन्डरी के पार भेज देते हैं- बायें हाथ के इस महान बल्लेबाज को क्रिकेट की दुनिया में कुछ इसी तरह से जाना जाता था। हालांकि आज वे क्रिकेट के खेल से कुछ हट कर क्रिकेट प्रशासन के साथ जुड़ गए हैं, लेकिन उनके व्यक्तित्व या निजी प्राथमिकताओं में कोई बदलाव नहीं आया है। यह आदर्शवादी, तेज़तर्रार बल्लेबाज एक बार फिर से एक नेक काज के लिए आवाज़ उठा रहें हैं। इस बार वे लड़कियों के अधिकारों को सुरक्षित रखने की बात कर रहे हैं।

सौरव गांगुली जिन्हें सर ज्यॉफ बॉयकॉट द्वारा ‘प्रिंस ऑफ कोलकाता’ का अनूठा नाम दिया गया और आज ज़्यादातर क्रिकेट प्रेमी भारतीय उन्हें ‘दादा’ कहकर पुकारते हैं। वे देश के एक प्रमुख बाल अधिकार संगठन ब्त्ल् -चाइल्ड राईट्स एण्ड यू द्वारा शुरू किए गए एक अभियान ‘राईट टू स्कूल’ को अपना समर्थन प्रदान कर रहें हैं।

इस अभियान के माध्मय से क्राई एक ऐसी दुनिया का निर्माण करना चाहता है जहाँ लड़कियों को अपने अधिकार मिलें- जहां उन्हें पढ़ने-लिखने, आगे बढ़ने के लिए लड़कों के समान अवसर दिए जाएं। 1,21,000 लड़कियों को फिर से स्कूल भेजना क्राई के इस अखिल भारतीय अभियान का उद्देश्य है। ‘‘लड़कियों की पढ़ाई के रास्ते में कई बाधाएं आती हैं, इनमें से सबसे बड़ी मुश्किल है यह मानसिकता कि लड़कियों की पढ़ाई में निवेश करना उचित नहीं है। जब सौरव जैसे लोग इस प्रक्रिया को बदलने की कोशिश करेंगे, तो निश्चित रूप से एक बड़ा बदलाव आएगा। सही शिक्षा ही समाज में सकारात्मक बदलाव ला सकती है। शिक्षा के द्वारा ही लड़कियों को जागरुक, शिक्षित और सशक्त बनाया जा सकता है, उन्हें समाज में बेहतर जीवन जीने के लिए सक्षम बनाया जा सकता है। यह बदलाव लाने के लिए हमें सबसे पहले समाज के दृष्टिकोण में बदलाव लाना होगा।’’ क्राई- चाईल्ड राईट्स एण्ड यू में रिसोर्स मोबिलाइज़ेशन की डायरेक्टर वत्सला मैमगेन ने कहा।

इस अभियान को अपना समर्थन देते हुए सौरव ने कहा ,‘‘लड़कियां चाहे किसी भी रूप में हों- माँ, बेटी या दोस्त की बेटी- वह दुनिया की सबसे खूबसूरत चीज़ों में से एक है। मुझे गर्व है कि मैं एक प्यारी और समझदार लड़की-सना का पिता हूँ। इसलिए मैं समझता हूँ कि बेटियों का महत्व क्या होता है। लेकिन यह सच है कि गांवों में या शहरों के बाहरी इलाकों में रहने वाली हमारी ज़्यादातर लड़कियों को स्कूल में उचित सुविधाएं नहीं मिलती हैं। मैंने अपनी आंखों से यह सब देखा है। लड़कियां को सभी ज़रूरी सुविधाएं मुहैया कराना हमारा कर्तव्य है, फिर चाहे स्कूल हो या आम जीवन। ताकि उन्हें स्कूल बीच में ही न छोड़ना पड़े और वे पढ़ाई-लिखाई से दूर रहने के लिए मजबूर न हों। मुझे उम्मीद है कि हम उनके साथ बेहतर व्यवहार करेंगे, क्योंकि वे बहुत अधिक मायने रखती हैं।’’

उन्होंने अपने प्रशंसकों से आग्रह किया कि लड़कियों को स्कूल भेजने में अपना योगदान दें।

भारत के कई हिस्सों में लड़की का पैदा होना बोझ माना जाता है। यह बात सभी जानते हैं कि लड़की के पैदा होने के साथ ही उसके साथ भेदभाव शुरू हो जाता है, कभी कभी तो उसे पैदा होने से पहले ही मार दिया जाता है और अगर वह किसी तरह पैदा हो जाती है, तो पैदा होते ही उसे मार दिया जाता है। भारत में बच्चों के लिंग अनुपात की बात करें तो हर 1000 लड़कों पर केवल 908 लड़कियां हैं। ऐसे में साफ है कि क्यों देश में लड़कियां स्कूल छोड़ने के लिए मजबूर हैं।