नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की जयंती के अवसर पर नितान्त आवश्यक है कि उनके त्याग, संघर्ष और महत्व के साथ-साथ उनकी विचारधारा पर भी गहन चर्चा की जाय। नेताजी महान देशभक्त और राजनीतिज्ञ थे जिन्होंने व्यापक पैमाने पर संगठन खड़ा किया, उनका भारतीय लोकमानस पर अद्भुत व कल्पनातीत प्रभाव है, इसलिए सुभाष दा की वैचारिकी व चिन्तन पर बहस समीचीन है।

मेरी स्पष्ट मान्यता रही है कि सुभाषचन्द्र बोस प्रतिबद्ध समाजवादी थे और समाजवाद की बुनियादी अवधारणाओं से अनुप्रेरित थे। उन पर गहन अध्ययन न होने और सामान्य जानकारी के कारण ही सार्वजनिक रूप से कहने कि हिम्मत न जुटा पाया कि सुभाष दा समाजवादी थे। जनवरी के प्रारम्भ में लोहिया के अनन्य सहयोगी व पूर्व लोकसभा अध्यक्ष रवि राय को सम्मानित करने और उनका आर्शीवाद लेने कटक (उड़ीसा) गया जो नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की जन्मस्थली है, उनकी कर्मस्थली तो पूरा वृहŸार भारत और यूरोप व एशिया की बड़ी भू-भाग थी। कटक में नेताजी पर उपलब्ध साहित्य का संकलन प्रारम्भ किया लगभग कई दिनों तक सुभाष बाबू के बारे में जो कुछ भी, जहाँ भी मिलता अध्ययन व मीमांसा हेतु संकलित कर लेता। फारवर्ड ब्लाक के अध्यक्ष देवव्रत विश्वास दा समेत कई नेताओं और विद्वानों से चर्चा-परिचर्चा की और इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि नेताजी सुभाष बोस समाजवाद के अप्रतिम अग्रदूत थे। यह उपकल्पना स्वयं सिद्ध है, इसे किसी उदाहरण या प्रमाण की आवश्यकता नहीं।

सुभाषचन्द्र बोस जितने बड़े योद्धा, संगठक और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे, उतने ही महान विचारक, दार्शनिक, लेखक व अर्थशास्त्री भी थे। उन्होंने आईसीएस की परीक्षा में दर्शनशास्त्र व अर्थशास्त्र को विषय के रूप में चुना था और निष्कासन के पश्चात् बंगभाषी विद्यालयों में दर्शनशास्त्र न होने से दाखिला नहीं लिया। उनकी अर्थशास्त्रीय तथा दार्शनिक संकल्पनायें उन्हें समाजवादी प्रस्थापनाओं के निकट लाती हैं। 19 फरवरी 1938 को हरिपुरा (गुजरात) अधिवेशन में उन्होंने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में स्पष्ट तौर पर कहा कि ‘‘मेरे मन में किसी प्रकार का संदेह नहीं है कि हमारी मुख्य राष्ट्रीय समस्याएँ जो गरीबी, अशिक्षा और बीमारी के उन्मूलन से एवं वैज्ञानिक उत्पादन और वितरण से सम्बन्धित हैं, समाजवादी आधार पर ही प्रभावशाली ढंग से सुलझाई जा सकती हैं। रंगपुरा राजनैतिक सम्मेलन 30 मार्च 1929 को हुआ था, जिसकी अध्यक्षता नेताजी ने की थी। इस अधिवेशन में उन्होंने समाजवाद की धारणा को भारतीय अवधारणा बताया था। समाजवाद के प्रति अपनी निष्ठा को उन्होंने कई बार सार्वजनिक रूप से स्वीकारा। 4 जुलाई 1931 को कलकŸा में आल इंडिया ट्रेड यूनियन की बैठक को सम्बोधित करते हुए उन्होंने भारत को अपना ‘‘समाजवाद’’ विकसित करने का आग्रह किया। सुभाष के शब्दों में, ‘‘मेरे मस्तिष्क में कोई संदेह नहीं है कि संसार की तरह भारत का परित्राण समाजवाद पर निर्भर है। भारत को समाजवाद के अपने प्रकार को विकसित करना चाहिए। समाजवाद के इस प्रकार में जो भारत विकसित करेगा, कुछ नया और मौलिक होगा, जो सम्पूर्ण विश्व के लिए लाभदायक होगा। वे भारत में समाजवादी गणतंत्र स्थापित करते हुए पूर्ण, समग्र व अमंद स्वतंत्रता का संदेश देना चाहते थे, जिसकी घोषणा उन्होंने कराची में 27 मार्च 1931 को आयोजित आल इंडिया नौजवान भारत सभा के कार्यक्रम में की। सुभाषचन्द्र बोस समाजवादियों पर विशेषकर डा0 लोहिया पर काफी विश्वास करते थे, उन्होंने एक जगह लिखा है कि ‘‘सच्चे समाजवादी को साम्राज्यवाद विरोधी भूमिका निभानी होगी’’। देश में समाजवाद की स्थापना करना अगला दायित्व होगा। जीवन के झंझावातों से जूझते हुए उन्हें भारतीय समाजवादी अवधारणाओं को व्याख्यायित और विकसित करने का समय नहीं मिला। यद्यपि उन्होंने कई लेख, इंडियन स्ट्रगल, आत्मकथा, क्रास रोड्स जैसे पुस्तकें लिखीं लेकिन ये सभी आज़ादी के संघर्ष के इर्द-गिर्द ही रहीं। नेताजी के बाद समाजवाद को परिभाषित करने का कार्य राममनोहर लोहिया ने किया। सुभाष और लोहिया की कई बातें एक समान थीं। दोनों ने जीवन का बहुत सारा हिस्सा कलकŸा व जर्मनी में बिताया, दोनों कांग्रेस के उच्च पदाधिकारी हुए और सैद्धान्तिक मतभेद के कारण कांग्रेस छोड़ने के लिए बाध्य हुए। तीन घटनाओं से दोनों की मानसिक व विचारगत निकटता प्रतिबिम्बित होती है। 1927 में कलकŸा में अखिल बंग विद्यार्थी परिषद का सम्मेलन हुआ जिसकी अध्यक्षता सुभाष दा को करनी थी, उनके न आ पाने पर उन्हीं के निर्देश पर अध्यक्षता लोहिया ने की। 1928 के अंत में कलकŸा में युवक सम्मेलन हुआ इसके विषय चयन समिति के अध्यक्ष सुभाष दा व सदस्य लोहिया थे। दोनों घण्टों आपस में विचार-विमर्श करते थे।

कुछ जानकारों का मानना है कि त्रिपुरी अधिवेशन में गाँधी-नेहरू विरोध के बावजूद सुभाष की जीत का कारण लोहिया व सोशलिस्टों का मूक समर्थन था। बाद में लोहिया ने एक जगह सुभाष का साथ खुलकर न देने पर खेद प्रकट किया है। 1942 में लोहिया भूमिगत होकर आज़ादी की लड़ाई को लड़ रहे थे। उन्होंने सुभाष से सम्पर्क का प्रयास किया, गोपनीय तरीके से आसाम के रास्ते कोहिमा तक पहुँचे लेकिन सफलता न मिली। दोनों ने भूमिगत होकर जन संगठन बनाया और लड़े, लोहिया ‘‘आज़ाद दस्ता’’ तो सुभाष ने ‘‘आज़ाद हिन्द फौज’’ के कर्ता-धर्ता बने। दोनों ने रेडियो द्वारा वैचारिक क्रान्ति फैलाई और जनमत बनाया। दोनों गाँधी का सम्मान करते थे और लगभग एक जैसे सवालों एवं मुद्दे पर सैद्धान्तिक असहमति व्यक्त की, यद्यपि सुभाष वय में बड़े होने के कारण अधिक मुखर थे।

दोनों कृषि और लघु उद्योग के आधार पर अर्थव्यवस्था को मजबूत करना चाहते थे। नेताजी ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित करने का स्वप्न देखा तो लोहिया ने साठ के दशक में बाकायदा हिन्दी के लिए अभियान चलाया।

सुभाष व लोहिया दोनों एकमत थे कि भारत का परित्राण समाजवाद से ही सम्भव है। आइये संकल्प लें कि दोनों की स्मृतियों व विरासत को हम विलुप्त नहीं होने देंगे और उनकी संकल्पना के अनुरूप समतामूलक शोषण विहीन समाजवादी समाज बनाने में अपनी यथासंभव भूमिका निभायेंगे। दोनों एक तल के दो सागर थे। दोनों के विचार आज उनके जीवनकाल से अधिक प्रासंगिक प्रतीत होते हैं, क्योंकि दोनों जिन विकृतियों, विडम्बनाओं और वैरूप्य से लड़े वे साम्प्रदायिकता, जातिवाद, दहेज, आर्थिक विषमता, सामाजिक अन्याय, रंगभेद, लैंगिक असमानता के रूप में आज भी देश को मुँह चिढ़ा रहे हैं। वर्तमान समय में सुभाष व लोहिया लड़ाई की अगुवाई व मार्गदर्शन के लिए भले ही सशरीर उपस्थित न हों, किन्तु उनके विचार मार्गदर्शन करने के लिए सदैव उपलब्ध रहेंगे।

–दीपक मिश्र