नई दिल्ली: तीन तलाक और मुस्लिम महिलाओं की हालत पर दाखिल याचिकाओं पर जवाब के लिए सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को केंद्र को चार सप्ताह का समय दिया. प्रधान न्यायमूर्ति तीरथ सिंह और न्यायमूर्ति धनंजय चंद्रचूड़ की पीठ ने केंद्र को चार सप्ताह का समय दिया, जब अतिरिक्त सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता ने जवाब देने के लिए और समय की मांग की.
दो सितंबर को 'ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड' (एआईएमपीएलबी) ने उच्चतम न्यायालय को बताया था कि सामाजिक सुधारों के नाम पर और तलाक के मामलों में मुस्लिम महिलाओं के साथ कथित लैंगिक असमानता सहित मुद्दों पर विरोधी अपीलों के चलते समुदाय के निजी कानूनों को ''दोबारा नहीं लिखा जा सकता.''
उच्चतम न्यायालय में दाखिल अपने जवाबी हलफनामे में एआईएमपीएलबी ने कहा कि एक से अधिक विवाह, तीन तलाक (तलाक ए बिदत) और निकाह हलाला की मुस्लिम प्रथाओं से जुड़े जटिल मुद्दे ''विधायी नीति'' के मामले हैं और इनमें हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता. बोर्ड ने यह भी कहा कि विवाह, तलाक और गुजारा भत्ता के मुद्दों पर मुस्लिम पर्सनल ला द्वारा मुहैया कराई गई प्रथाएं पवित्र पुस्तक ''अल कुरान'' पर आधारित हैं और ''पवित्र पुस्तक के मूलपाठ पर अदालतें अपनी व्याख्याएं नहीं रच सकतीं.''
बहुविवाह के संबंध में बोर्ड के हलफनामे में कहा गया कि हालांकि इस्लाम ने इसकी अनुमति दी है, पर वह इसे प्रोत्साहित नहीं करता. उसने विश्व विकास रिपोर्ट 1991 सहित विभिन्न रिपोर्ट का हवाला दिया जिनमें कहा गया है कि बहुविवाह का प्रतिशत आदिवासियों में 15.25, बौद्धों में 7.97 और हिंदुओं में 5.80 फीसदी है जबकि मुस्लिमों में यह प्रतिशत केवल 5.73 फीसदी है.
इसी के साथ ही अन्य याचिकाएं भी मुस्लिम समुदाय में प्रचलित 'तीन तलाक' की दशकों पुरानी प्रथा को चुनौती देते हुए दाखिल की गई, जिनमें तीन तलाक की पीड़ित शायरा बानो की याचिका भी शामिल है. एआईएमपीएलबी और जमायत-ए-उलेमा ने तीन तलाक का बचाव करते हुए कहा कि यह कुरान के आधार पर चलने वाले निजी कानून का हिस्सा है जोकि न्यायिक जांच के दायरे से परे है.
बोर्ड ने कहा कि हालांकि यह विवाह को समाप्त करने का वह तरीका है जिसकी सराहना कम ही की गई है लेकिन फिर भी यह प्रभावी है और शरीयत कानून के अनुसार है. बोर्ड ने यह भी कहा कि संविधान का भाग तीन पक्षों के निजी कानूनों से अलग-थलग है.
अत: उच्चतम न्यायालय मुस्लिम पर्सनल लॉ में विवाह, तलाक और गुजारा भत्ता की प्रथाओं की संवैधानिक वैधता के सवाल का अध्ययन नहीं कर सकता. बोर्ड ने यह भी कहा कि मुस्लिम पर्सनल लॉ के सभी स्रोतों को पवित्र कुरान की मंजूरी और अनुमोदन है.
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