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राहुल की छुट्टी से नई बहस का जन्म

ज़ीनत सिद्दीकी

कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राहुल गांधी का संसद सत्र के दौरान छुट्टी लेकर जाने ने एक नई बहस को जन्म दे दिया है। लोकसभा और उसके बाद विधानसभा चुनावों में लगातार हार झेलकर गर्त में जा रही कांग्रेस के लिए इस घटना ने मुसीबतों को बढ़ा दिया। अपने राष्ट्रीय उपाध्यक्ष के छुट्टी पर जाने का कांग्रेस नेताओं ने बचाव भी किया लेकिन यह सफाई काम नहीं आई। आज राहुल गांधी उसी समस्या से दो-चार हो रहे हैं जिससे कभी पूर्व प्रधानमंत्री और उनकी दादी इंदिरा गांधी हुई थी। केवल बड़ा फर्क दोनों के व्यक्तित्व का है। 

आपातकाल के बाद 1977 में हुए आम चुनावों में कांग्रेस को आजाद भारत के चुनावों में पहली बार हार झेलनी पड़ी थी। कांग्रेस केवल 154 सीटें जीत पाई और सत्ता से बेदखल हो गई। पार्टी में इंदिरा के नेतृत्व पर सवाल उठने लगे और दिग्गज नेता पार्टी छोड़कर जाने लगे। हालत इससे भी बदतर हो गई जब उत्तर और मध्य भारत के राज्यों से पार्टी का सफाया हो गया। पार्टी के स्थानीय क्षत्रपों को इंदिरा ने पहले ही नजरअंदाज करना शुरू कर दिया था और इसके चलते स्थानीय नेतृत्व लगभग समाप्त हो गया। राजस्थान, गुजरात, दिल्ली और पंजाब जैसे राज्यों में कांग्रेस गौण हो गई। बाबू जगजीवन राम, हेमवंती नंदन बहुगुणा और नंदिनी सत्पथी जैसे नेताओं ने कांग्रेस छोड़ दी थी, ठीक ऐसी ही या कहें तो इससे भी बदतर स्थिति में आज कांग्रेस है। 

2014 लोकसभा चुनाव और उसके बाद पांच राज्यों के चुनावों में कांग्रेस को करारी शिकस्त मिली। लोकसभा में कांग्रेस राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, दिल्ली, गोवा, बिहार और उत्तर प्रदेश से गायब हो गई। वहीं पांच राज्यों में कांग्रेस शासन में थी और वहविधानसभा चुनावों में तीसरे से चौथे पायदान पर पहुंच गई। निराशाजनक नतीजों के बाद केन्द्रीय नेतृत्व को स्थानीय नेताओं ने निशाने पर लिया। चुनाव प्रचार की कमान राहुल गांधी के पास थी तो जाहिर है हमला भी उन्हीं पर हुआ। शशि थरूर, भंवरलाल शर्मा, दिग्विजय सिंह और मणिशंकर अय्यर समेत कई नेताओं ने प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से राहुल पर सवाल दागे। पूर्व मंत्री मीनाक्षी नटराजन ने भी राहुल पर काम में दखल देने का आरोप लगाया। हर राज्य में चुनाव से पहले कांग्रेसी नेताओं ने पाला बदल लिया। 

1977 के नतीजों और घटनाओं को 2014 और 2015 की कांग्रेस से तुलना करें तो साफ लगता है कि इतिहास ने खुद को दोहराया। लेकिन इस बार कांग्रेस पिछली बार से भी बुरी स्थिति में पहुंच गई। न उसके पास जन नेता दिखते हैं और न इंदिरा जैसा करिश्माई नेतृत्व। उसके पास इतिहास की सबसे कम 44 सीटें लोकसभा में है। इस साल बिहार और फिर असम व पश्चिमी बंगाल में चुनाव होने है जहां उसके लिए रास्ता और कठिन है। इंदिरा गांधी ने 77 के चुनावों के बाद 1980 में फिर से सत्ता हासिल कर ली थी और विपक्ष को समाप्त कर दिया। कांग्रेस नेता उम्मीद कर रहे हैं कि राहुल गांधी भी पार्टी को इस तरह निराशा से निकाल पाने में सक्षम होंगे।

राहुल गांधी पार्टी में युवा नेताओं के हाथ में कमान चाहते हैं। वे चाहते हैं राज्य और केन्द्रीय नेतृत्व में ज्यादा से ज्यादा युवा लोगों को मौका मिले। पुराने नेता इनके लिए मार्गदर्शक का काम करें और युवाओं के लिए रास्ता बनाए। इंदिरा गांधी ने भी 1977 में हार के बाद ऐसा ही किया था। लेकिन इस बार राह पहले से कठिन है और उनके लिए पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी से इसकी अनुमति लेना ही पहली बाधा होगी। अगर वे इस बाधा को पार कर लेते हैं तो फिर राहुल के लिए आगे की राह खुलेगी लेकिन समय उनके लिए तेजी से खर्च हो रहा है।

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