मोहम्मद आरिफ नगरामी

1857 की पहली जंगे आजादी के बाद मायूसियों ने बहुत से लोगों, खास कर मुसलमानों को गिरफत मंे ले लिया था। वह शिकस्त की वजूहात और नये हालात के तकाजों को समझने के लिये तैयार नहंी थे। मगर सर सैयद अहमद खां ने यह समझने में ताखीर नहंी की कि मायूसियों के बादल इल्म की शुआओं से ही छटेंगेें, चुनांचे सर सैयद ने 27 मई 1857 को मोहमडन ऐंगलो आरेन्टियल कालेज की बुनियाद रखी। उनके इन्तकाल के 22 सालों के बाद इस एदारे ने अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की शक्ल अख्तियार की। यूनिवर्सिटी की अफादियत का अन्दाजा इससे होता है कि इसमें जदीद और रवायती तालीम के तीन सौ से ज्यादा कोर्सेज चलाये जा रहे हैं। सर सैयद अहमद खां ने उन्नीसवी सदी के अवाखिर में जो ख्वाब मुल्क व कौम की तामीर व तरक्की के लिये देखा था वह आज एक कौमी बल्कि आलमी एदारे की शक्ल में हर तरह की खिदमात इन्जाम दे रहा है। सर सैयद अहमद खां ने जो पौधा उन्नीसवी सदी के आख्रि में लगाया था वह आज एक तनावर और पुख्ता दरख्त की शक्ल में मौजूद है। अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्स्रिटी से बिला तफरीक लोग इस्तेफादा कर रहे हैं और शायद यही वजह है कि गुजिश्ता साल जब वजीरे आजम नरेन्द्र मोदी यूनिवर्सिटी के सद साला प्रोग्राम में आन लाईन शरीक हुये थे तो उन्हेांने अपनी तकरीर मं एक जुमला कहा था कि जो दरअसल सर सैयद अहमद खां और बानियशने यूनिवर्सिर्टी का मिशन व मकसद रहा है। वजीरे आजम3 नरेन्द्र मोदी ने अपनी तकरीर मे कहा था कि ‘‘ अलीगढ मुस्लिम यूनिवसिर्टी की श् ाक्ल एक मिनी इण्डिया की है यानी इस यूनिवर्सिटी मेें पूरा हिन्दुस्तान समाया हुआ है।

प्यम्बरे तालीम सर सैयद अहमद खां एक बेहद जहीन इन्सान थे उनका सियासी,समाजी और तारीखी शऊर कितना पुख्ता था। इसका बैयन सुबूत उनकी दर्जनों तसानीफ खुतबात और मकालात हैं। सर सैयद ने 1857 के बाद इस्लाहे कौम को ही अपना मकसदे हेयात करार देकर ऐसे कारनामे अनम दिये हैं कि दुनिया की तारीख में इसकी मिसाल नहीं मिलती।

हाली ने ‘‘हयाते जावेद‘‘ के दीपाचे में ठीक ही लिखा है अगरचे हमारी कौम में बडे बडे उलूल्अज्म बादशाह, बडे बडे दानिशमंद, वजीर और बडे बडे सिपह सालार गुजरे हैं मगर उनके हालात इस कठिन मंजिल में जो हमको अब दुनिया में औेर हमारी नस्लों को दरपेश है। बराहे रास्त कुछ रहबरी नहंी कर सकते। अल्बत्ता सर सैयद की जिन्दिगी हमारे लिये एक ऐसी मिसाली है, जिसकी पैरवी से मुमकिन है कि हमारी कौम की यह कठिन मन्जिल आसानी के साथ तय हो जायेगी। बिला शुब्हा अगर इस पुर आशोब दौर में सर सैयद हमारी रहनुमाई नहंी करते तो शायद हिन्दुस्तानी मुसलमान पसमांन्दागी के उस दलदल से बाहर नहंी निकल पाते। सर सैयद अहमद खां ने न सिर्फ मुसलमानों की महरूमियों और बदनसीबियों का मदावा तलाश किया बल्कि उनके अन्दर जिन्दिगी जीने का हौसला भी बख्शा।

तारीख के अवराक गवाह हैं कि जब सर सैयद ने इस्लाहे कौम के लिये अमली एक्दामात शुरू किये तो औरों की बात तो छोडिये अपनों ने भी उनकी किस कदर मुखालिफत की। उन पर न जाने कित ने बेहूदा इल्जामात लगाये गये। किसी ने उनको अंग्रेजों का पिट्ठू कहा तो किसी ने दहरिया तक कह डाला। किसी ने उनके नजरियाना तालीम को इस्लामे मुखालिफ करार दिया तो किसी ने यह अफवाह फैलायी कि सर सैयद अंग्रेेजी तालीम के जरिये दीनी तालीम को खत्म करना चाहते हैं जब कि हकीकत बिल्कुल बरअक्स थी। सर सैयद शुरू ता आखिर जदीद तालीम के साथ साथ मजहबी तालीम के भी अलमबरदार थे। उन्हेांने अपने खुतबात व मकालात में हमेशा इस नुकते पर जोर दिया कि मुसलमानों को ऐसी तालीम हासिल करनी चाहिये जो दीन व दुनिया दोनों के लिये मुफीद हो।

सर सैयद उन्नीसवीं सदी की हमागीर तारीखसाज, अहदे आफरीं और अबकरी शख्सियत के मालिक थे। सर सैयद की अलीगढ तहरीक किसी महदूद किस्म की सियासी या तालीमी तहरीक का नाम नहंी बल्कि एक ऐसी जामे और शऊरी तहरीक अलामत थी, जिसका मकसद तहजीब का एक नया तसव्वुर देकर समाज में एक बडा इन्केलाब लाना था। इस तहरीक का बडा फैजान यह था कि उसने दौरे गुलामी में तालीमी आजादी का पहला मारका बडी कामयाबी के साथ सर हो गया। सर सैयद की शख्सियत हमाजेहत थी, सर सैयद एक वफादार, कौम व मिल्लत के खादिम और सर सैयद बहैसियत हिन्दू मुस्लिम इत्तेहाद के अलम्बरदार, सर सैयद बहैसियत एक माहिरे तालीम, सर सैयद बहैसियत एक इन्केलाब आफिरीं शख्सियत, सर सैयद बहैसियत एक दयानतदार, और कोहनामुश्क सहाफी, सर सैयद बहैसियत एक मुमताज अदीब, सर सैयद बहैसियत एक मुअर्रिख, सर सैयद बहैसियत एक नामवर खतीब, सर सैयद बहैसियत एक बाकमल मसन्निफ, सर सैयद बहैसियत एक नाकिद, सर सैयद की जिन्दिगी का मुताला करने से चार बातें हमें नुमायां तौर पर नजर आती हैं। एक तो सर सैयद तन्कीद से कभी नहंी घबराते थे, दूसरी बात सर सवैयद जुर्रातमंदाना और कलन्दराना दिल रखते थे। हक की बात कहने से कभी पीछे नहंी हटते थे। यह सर सैयद की ही शख्सियत थी कि जिसने असबाब बगावते हिन्द लिखकर हुकूमते बर्तानिया के अहेलकारो ंको 1857 के वाकेआत का जिम्मेदार ठहराया। इस तरह उन्होंने खुतबाते अहमदिया जैसी शाहकार किताब लिख कर सर विलियम मयूर का मुंह तोड जवाब दिया जिसमें रसलू करीम सल0 की सीरत को गलत अंदाज में पेश किया और उसका मजाक भी बनाया। सर सैयद ने इस किताब को लंदन में बैठकर तस्नीफ की। तीसरी बात वह हिन्दू मुस्लिम इत्तेहाद के अजीम अलमबरदार थे।

17 अक्तूबर को अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में खास कर और मुल्क व दुनिया के उन तमाम मकामात पर सरसैयद डे मनाया जाता है जहां पर अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के फारिग तलबा सुकूनतपजीर हैं, सर सैयद डे को वह ऐसे रहनुमा को याद करते हैं जिसने अंधेरे में रोशनी की शमा जलाई । जिसने बंद गली में राह निकाली, जिसने हार जाने के बाद जीतने का गुर सिखाया।

सर सैयद अहमद खां ने अपनी खुदनविश्त हयाते सर सैयद में लिखा है, कि मैने अलीगढ को इस लिये पसंद किया कि इसके चारों तरफ मुसलमान रईसों से घिरा हुआ है। मेरा बुलंदशहर, रूहेलखण्ड, जिनमें मालदार और मुअज्जिज घरानों के लोग रहते हैं इस लिए मुसलमानों की तालीम के लिये अलीगढ बहुत मुनासिब मकाम है। अफसोस कि कौम व मिल्लत के मुहसिन सर सैयद अहमद खां 28 मार्च 1898 को मालिके हकीकी से जा मिले। तदफीन मुस्लिम यूनिवर्सिटी अलीगढ के कैम्पस में हुयी।