तौक़ीर सिद्दीक़ी

उत्तर प्रदेश की दो लोकसभा सीटों पर हुए उपचुनावों के परिणाम आ चुके हैं, रामपुर में जहाँ आजम खान की बादशाहत ख़त्म हो चुकी है वहीँ आज़मगढ़ में मिली हार को सीधे तौर पर सपा प्रमुख और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से जोड़कर देखा जा रहा है. रामपुर में जहाँ भाजपा और सपा के बीच सीधी टक्कर थी वहीँ आजमगढ़ में बसपा के शाह आलम उर्फ़ गुड्डू जमाली ने मुकाबला त्रिकोणीय बना दिया था और त्रिकोण का यही कोण सपा उम्मीदवार धर्मेंद्र यादव पर भारी पड़ गया. गुड्डू जमाली ने इतने वोट हासिल कर लिए जिसके बारे में समाजवादी पार्टी ने सपने में भी नहीं सोचा था. गुड्डू जमाली ने 266106 वोट हासिल किये, यानि समाजवादी पार्टी से सिर्फ 37731 और विजयी उम्मीदवार निरहुआ से सिर्फ 46326 वोट कम.

मतलब गुड्डू जमाली इस चुनाव में हारकर भी बाज़ीगर का खिताब ले उड़े. चुनाव भले ही भोजपुरी स्टार ने जीता लेकिन हीरो तो शाह आलम ही बने, यह वही शाह आलम हैं जिन्हें अभी कुछ महीनों पहले हुए विधानसभा चुनाव में मुबारकपुर सीट से मात्र 36,460 वोट प्राप्त हुए थे. तब वो असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी से चुनाव लड़े थे, लेकिन चुनाव बाद वो बसपा में शामिल हुए और आज़मगढ़ से पार्टी के उम्मीदवार भी बने और उनकी राजनीति में क्या बदलाव आया, इस चुनाव के परिणाम को गुड्डू जमाली की एक लम्बी छलांग कहा जायेगा। सपा के गढ़ में 29 प्रतिशत से ज़्यादा वोट हासिल करना कोई मज़ाक नहीं है.

गुड्डू जमाली को मिले वोटों से पता चलता है कि विधानसभा चुनाव बाद बनाई गयी मुस्लिम विरोधी इमेज का सपा को उतना ही नुक्सान हुआ है जितना उन्हें पिछले चुनावों में फायदा पहुंचा था. 266106 वोट सिर्फ मायावती के कोर वोटर तो नहीं हो सकते और न ही गुड्डू जमाली के समर्थक वोट, इसलिए यह बात तो अच्छी तरह मान लेना चाहिए कि मुस्लिम वोटरों ने अखिलेश यादव को यह याद दिलाया है सपा की कामयाबी में उनका सबसे बड़ा हाथ होता है, अगर आप उन्हें teken for granted लेंगे तो वो आपके खरीदे हुए गुलाम नहीं है. वो उस बसपा के साथ भी जा सकते हैं जो भाजपा की B टीम बताई जाती है. मुसलमान भी अब चाहता कि उसने आपको कुछ दिया है तो आप भी उसके लिए कुछ कीजिये। पिछले दिनों प्रदेश के अंदर मुसलमानों के साथ जो कुछ हुआ , जिस तरह उनके घरों पर बुलडोज़र चलाये गए, उनको लेकर समाजवादी पार्टी की ऐसी कोई प्रतिक्रिया सामने नहीं आयी जिससे लगे कि वो मुसलमानों के दर्द को समझती है और उसके आगे नहीं तो पीछे ज़रूर खड़ी है. उसे अब ट्वीटर वाला नेता नहीं चाहिए, बल्कि उसको इन्साफ दिलाने के लिए सड़क पर उतरने वाला नेता चाहिए।

आजमगढ़ में धर्मेंद्र यादव नहीं लड़ रहे थे बल्कि अखिलेश लड़ रहे थे, उनके परिवार का सदस्य ही लड़ रहा था, आपके इन आरोपों में अब कोई दम नहीं कि प्रदेश सरकार की मशीनरी ने चुनाव हराया, आप पिछली बार आज़मगढ़ से ढाई लाख वोटों से जीते थे, माना कि यह उपचुनाव था, माना कि मतदान कम हुआ था, माना कि यहाँ अखिलेश नहीं खड़े थे मगर हार तो मिली ही, अखिलेश को न सही धर्मेंद्र यादव को मिली, कोई बहुत फ़र्क़ नहीं है दोनों में. दोनों ही यादव फैमिली से हैं, दोनों संसद का चुनाव कई बार जीत चुके हैं. रामपुर का चुनाव हो या आज़मगढ़ का, दोनों ही जगह सपा का घमंड हारा है, अखिलेश का घमंड हारा, बिलकुल पिछले विधानसभा चुनाव की तरह जब मतदान कुछ दिन पहले उनकी बोली भाषा सबकुछ बदल गयी थी. इन दोनों जगहों पर उन्होंने चुनाव प्रचार करना तक मुनासिब नहीं समझा, इसे घमंड नहीं तो और क्या कहा जायेगा मगर उनके घमंड को निरहुआ ने नहीं गुड्डू जमाली ने तोड़ा है या फिर कह सकते हैं मुसलमानों ने.