‘ सफदर हाशमी निसंदेह नुक्कड़ नाटक के योद्धा थे। उन्होंने अपनी स्वतंत्र कला को आकार दिया पर, पार्टी लाइन पर ज्यादा काम करना उनके लिये और कला के लिहाज से बेहतर नहीं था क्योंकि, कलाकार आजाद होता है और उसकी अपनी सामाजिक-राजनीतिक गाइड लाइन होती है। मेरी समझ से जो शायद सफदर हाशमी में नहीं थी। फिर भी, आज सफदर को याद करना कई मायनों में नुक्कड़ नाटक के वजूद और उसके स्वरूप को आत्मसात करना ही है। ’

(रंगकर्मी सफदर हाशमी की तीसवें शहादत दिवस पर विशेष)

मौजूदा दौर मैं नुक्कड़ नाटकों पर बात करना केवल सफदर या देश भर मे मारे गये कलाकारों को नमन करना भर है। क्योंकि नुक्कड़ नाटक और नुक्कड़ नाटकों का आंदोलन दोनों ही इस देश में एक प्रकार से लुप्त कला प्रजाति में शामिल हो गये हैं। ऐसा नही है कि आज नुक्कड़ नाटक इस देश में समाप्त हो गया है या लोग कर नही रहे हैं, हाँ नुक्कड़ नाटक की विधा, उसका तेवर, सब कुछ ऐसे स्वरूप में आ गया है, जो बाजारू सतही कला का द्योतक बन गया है। जन की आवाज, प्रतिगामी ताकतों के खिलाफ जन कला का उदघोष करने वाली जन गीतों से लैस नुक्कड़ नाटक विधा आज अपनी पहचान खो चुकी है। नुक्कड़ नाटक के नाम पर आज जो भी चल रहा है, वो केवल एक व्यावसायिक तमाशा है। इसी तमाशे के नाम पर सरकारी और गैर सरकारी लोग अपनी-अपनी जेबें भर रहे हैं। जन जागरूकता के लिए निर्धारित धन का जमकर दुरूपयोग नुक्कड़ नाटकों के नाम पर हो रहा है। जाहिर है रोड शो करने वाले लोग नुक्कड़ नाटक को एक नये सस्ते बाजारू स्वरुप में ढाल कर प्रोपोगेंडा कर रहे हैं। आज मात्र बयानबाजी, भाषणबाजी, उपदेशबाजी के लंपटई रूप को नुक्कड़ नाटक मान लिया है।

यूँ तो भारत में नुक्कड़ नाटक आजादी से चार साल पहले सन 1943 में भारतीय जन नाट्य संघ या इंडियन पीपुल्स थिएटर (इप्टा) के गठन से अस्तित्व में आ गया था, पर भारत में इसका एक और असल आगाज सन 1967 में नक्सलबाड़ी आंदोलन के दौरान देखने को मिला। बिहार, आंध्र, बंगाल की लपट नुक्कड़ नाटक के आंदोलन से भी अछूती नहीं रही। हम कह सकते हैं आजादी के बाद सातवें दशक में नुक्कड़ नाटक इस देश में जन आवाजों की रहनुमाई, उसके प्रतिरोध-प्रतिवाद का केंद्र था। नुक्कड़ नाटक का ही असर था की दबंग और स्थानीय प्रशासन इसकी ताकत से थर्राने लगा था। आमजन की निराशा, छटपटाहट, दमन, शोषण, गरीबी, व्यभियार, असमानता को अपनी कला का हथियार बनाने वाला नुक्कड़ नाटक लोगों की आकांक्षाओ और अभिव्यक्ति का केंद्र बना। हम यह भी सही है, इस कला ने क्षेत्रीय स्तर पर सरकारों की दमनकारी नीतियों के खिलाफ पासा पलटने का भी काम किया। हालांिक, इन सारी स्थितियों और परिस्तिथियों के बीच राजनीतिक और सामाजिक बदलाव की मुहिम में जन संगठनों की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता क्योंकि, इन संगठनो ने ही नुक्कड़ नाटक को अपने आन्दोलन का हिस्सेदार बनाया और इस हिस्सेदारी का असर था कि नुक्कड़ नाटक अपनी स्वायत्तता के साथ जन आंदोलन का हथियार बना। पिछली सदी के नवें दशक तक नुक्कड़ नाटक जनता की थाती बनकर अपने चर्मोत्कर्ष पर था। ढाई दशक तक, हम कह सकते हैं कि नुक्कड़ नाटक अपनी गति और तेवर के साथ जनता के दुःख-दर्द का, उसके मूल्यों का, उसकी चेतना का, उसकी आकांक्ष्ज्ञाओं का वाहक रहा। कला के तथाकथित ठेकेदारों और रहनुमाओं ने यूँ तो कभी भी नुक्कड़ नाटक को तरजीह नही दी लेकिन, जब यह विधा जनता के बीच लोकप्रिय और प्रतिस्थापित हो गयी, तो यही कला के तथाकथित लम्बरदार नुक्कड कला के भी ठेकेदार बन गये और यहीं से नुक्कड़ नाटक की गति कमजोर हुई और वह खरामा-खरामा पतन की राह पर चल पड़ी। नतीजनत यह कला सरकारी और गैर सरकारी एजेंसियों की गोद में जाकर उनकी दास बन गयी। आज नुक्कड़ नाटक पतन के कगार पर खड़ा हुआ है, उसका सौंदर्यशास्त्र, उसका तेवर, उसकी कला, उसका रूप, उसकी मौलिकता सबकुछ ध्वस्त होकर एक तमाशा बन गयी है।

बताने की जरूरत नहीं है, जो लोग नुक्कड़ नाटक आंदोलन की मुिहम के केंद्र में थे, वह बिक गए, असंतुलित सरकारीकरण का हिस्सा बन गये। नये दलों को उसकी पारम्परिक खूबियों को समेटते हुए तैयार ही नही किया गया। नुक्कड़ नाटकों के जानकार दलों में बंटकर अपनी अलग-अलग दिशा और धाराओं में बंट गये। ऐसा नहीं था की वे नुक्कड़ नाटक के वजूद को बचा नही सकते थे पर, उनकी कूबत, उनके विचार, उनकी आस्थाएं जन विमुख होकर थोते आदर्शों और बाज़ार की जरूरतों में सिमट गयीं। नौजवानांे, कलाकरों, संस्कृतिकर्मियों की उन्होंने कोई नई पांत बनायी ही नहीं। यही कारण है कि आज नुक्कड़ नाटक की संस्कृति अपना वजूद खो चुकी है।

सफदर हाशमी निसंदेह नुक्कड़ नाटक के योद्धा थे। उन्होंने अपनी स्वतंत्र कला को आकार दिया पर, पार्टी लाइन पर ज्यादा काम करना उनके लिये और कला के लिहाज से बेहतर नहीं था क्योंकि, कलाकार आजाद होता है और उसकी अपनी सामाजिक-राजनीतिक गाइड लाइन होती है। मेरी समझ से जो शायद सफदर हाशमी में नहीं थी। फिर भी, आज सफदर को याद करना कई मायनों में नुक्कड़ नाटक के वजूद और उसके स्वरूप को आत्मसात करना ही है। बात नुक्कड़ आंदोलन की हो तो सफदर और देश के तमाम नुक्कड़ रंगकर्मियों को भुलाया नही जा सकता। यह ठीक है कि आज नुक्कड़ नाटक अपनी मौलिकता के साथ जन के बीच नही हैं। ऐसा क्यूं है? यह स्थितियां क्यूं बनीं? निजाम वही है, चेहरे क्यंू बदले?

इन सवालों पर बाजारवाद की परत होने के बावजूद संस्कृतिकर्मियों को मनन कर एक नये तेवर के साथ सामने आना चाहिये। सवाल वही है, रूप बदल गया है, चेहरे वही हैं, रंग बदल गए हैं। बस, नुक्कड़ नाटक आंदोलन को अपने वही पुराने स्वरूप में लाने के लिये नये तेवर के साथ सामने आने की जरूरत है। यह तभी संभव है जब हम सफदर, पाश, गुरुशरण सिंह और नुक्कड़ नाटक आंदोलन में अपनी ऊर्जा खपाने वाले संस्कृतिकर्मियों की विरासत को सहेजते हुऐ उसे रंग आंदोलन की शक्ल में ढाल दें। सफदर हाशमी की तीसवीं बरसी पर उन्हें याद करने का यही मानी है कि हम अपने दड़बे से बाहर निकलें और नुक्कड़ नाटक को जनता की जवाबदेही पर उसे उसी स्वरूप पर लौटा दे।

– अनिल मिश्रा गुरुजी
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