मोहम्मद आरिफ नगरामी

रोजनामा अपना अखबार के साबिक चीफ एडिटर, मुल्क के आलमी शोहरयतयाफ्ता सद एहतेराम सहाफी, बेहद शानदार और नफीस इंसान मोहतरम हफीज नोमानी साहब को इस दुनिया से रूख्सत हुये आज तीन साल हो गये जिसको उनके घर वाले प्यार से अब्बी और शहरे निगारां लखनऊ के लोग हफीज भाई कह कर मुखातिब करते थे। इस एक साल मेें हफीज भाई की याद हर-हर कदम पर आयी। वह रोजनामा अपना अखबार के चीफ एडिटर अपना अखबार के लिये इदारिया मरहूम ही अपने जादुई कलम से तहरीर फरमाया करते थे। इस सिलसिले मेें हफीज भाई मरहूम से तकरीबन हर रोज ही गुफ्तगू हुआ करती थी। अखबार के मसाएल के अलावा बहुत देर तक दूसरे मसाएल पर भी बात किया करते थे। शायद बहुत ही कम लोगोें को इस बात का इल्म होगा कि अपना अखबार को देवनागरी मेें शाया करने का मशविरा डॉ0 ख्वाजा सैयद मोहम्मद यूनुस को हफीज भाई मरहूम ने ही दिया था। उनका मकसद यह था कि इस दौर में जबकि उर्दू जवाल पजीर है और उर्दू अखबारात की रसाई भी मुस्लिम घरानों तक नहीं है तो देवनागरी जबान के अखबार के जरिये ही मुसलमानों को मुसलमानों के मसाएल से वाकिफ कराया जाये। डॉ0 ख्वाजा यूनुस साहब मरहूम मोहतरम हफीज भाई की बड़ी इज्जत व तकरीम किया करते थे और खुद हफीज भाई भी डॉ0 ख्वाजा यूनुस के जरिये की गयी उनकी तालीमी खिदमात के बडे़ मोतरिफ थे। अल्लाह तअंाला का शुक्र है कि हफीज नोमानी साहब के मशविरे पर आज से बीस साल पहले शाया होने वाला रोजनामा अपना अखबार पूरी आबो ताब के साथ शाया हो रहा है। डॉ0 ख्वाजा यूनुस साहब के इंतेकाल के बाद भी उनके चारों साहबजादगान ने अपना अखबार की इशाअत को जारी रखा है क्योंकि यह अखबार उनके मरहूम वालिद की यादगार है।

हफीज नोमानी साहब मरहूम सहाफत के उस जर्रीं दौर की उस नस्ल से तअल्लुक रखते थे जिन्होंने तकसीमे हिन्द के बाद के पुरआशोब दौर मेें मुसलमानाने हिन्द की रहनुमाई की और उनकी हिम्म्त बंधाई। इसके लिये उन्होंने कैदो बंद की सऊबतें बर्दाश्त की उस नस्ल के सहाफत के अजीम मीनारों में मौलाना मोहम्मद मुस्लिम, मौलाना उस्मान फाकलीत, मुफ्ती रजा अन्सारी फिरंगी महली और जमील मेंहदी, हसुैन अमीन, उस्मान गनी और इशरत अली सिद्दीकी के नाम आते हैं। मगर आज बात सिर्फ और सिर्फ हफीज भाई की ही होगी। हफीज भाई कलम के सिपाही भी थे और मुजाहिद भी। उनकी कलम में न तो मसलहत थी और न ही मसालेहत और अगर बिलफर्ज होती भी तो शरई और अखलाकी हुदूद में रह कर क्योंकि उनका तअल्लुक जिस खानवादाए इल्म व दानिश और जोहद से था उसमें सालहियत के सिवा किसी और से सरोकार नहीं। इस खानवादा के मिजाज में हकगोई और बेबाकी थी। हफीज भाई मरहूम हाफिज र्कुआन भी थे, अलिमेदीन भी और असरी उलूम से आगाह भी। घर में इल्म का चर्चा और रूहानी माहौल का गलबा था, सिदक व सफा के इस माहौल मेें उन्होंने वही किया और वही लिखा जो उनके खानदान का मेजाज और इम्तेयाज था। हफीज भाई मरहूम का कलम सच और हक का तरजुमान था। वह एक खास फिक्र के सहाफी थे। आम धारे से बहुत मुख्तलिफ जाती फहम और इस्लामी फरासत से वह हकाएक तक बखूबी पहुंच जाते थे। हफीज भाई अब जिस आलम में हैं वहां उनकी हयात और खिदमात पर मजामीन तहरीर करने या उनकी याद मेें जलसा करने की उनको बिल्कुल जरूरत नहीं थी लेकिन हम जिस आलम में है उसका यह दस्तूर है कि जाने वाले की याद और तजकिरे से क़ल्बे हजी को तस्कीन दी जाये और जो नहीं जानते या बहुत कम जानते हैं उनको जाने वाले के मुहासिन व कमालात से वाकिफ कराने की कोशिश की जाये क्या अजब है कि बिसाते इल्म के ताजा वारिदों के लिये उन में कोई सबक और तरगीब व तशलीक का कोई सामान हो।

आज के दौर मेें मन्सब व रूतबा, दौलत, ज़ाहिरी इल्म सभी कुछ है मगर एखलास, जुरअत और नेकनियती का फुकदान है। ऐसे में अगर कोई अपने इल्म अपने मरतबे और मन्सब का दुरूस्त इस्तेमाल करे तो कलम की रवानी अज खुद बढ़ जाती है। हफीज नोमानी साहब सिर्फ एक अजीम सहाफी ही नहीं बल्कि दर्दमंद दिल रखते थे। और इसीलिये वह हर तब्के मेें बहुत ही ज्यादा मकबूल थे। अजीम सहाफी व कलमकार, अच्छे मुदब्बिर और दानिश्वर थे। मरहूम अपने छोटों और बड़ों से एक खास दिलकश और मासूम मुस्कुराहट के साथ पेश आते थे। हफीज साहब को सहाफत विरासत मेें मिली थी। हकगोई, बेबाकी उन्होंने अपने खानवादा से सीखी थी। जहां तख्तएवार के सामने भी सच के सिवा कुुछ और न कहने की र्जुअत से तारीखे नोमानी भरी पड़ी है। हफीज भाई मरहूम अहदे हाजिर के बेहद मुमताज और मोतबर कलमकार थे। उनके इल्मी, अदबी, और सहाफी खिदमात काबिले सताईश है। वह नेहायत फआल और मुतहर्रिक रह कर गुजिश्ता 6 दहाईयो ंसे सताईश की तमन्ना और सिला की परवाह से बेनियाज अपने कलम को रवां-दवां रखे हुये थ। हफीज भाई सिर्फ एक निडर और ईमानदार सहाफी ही नहीं थे बल्कि उर्दू सहाफत का एक अहम सुतून थे जो उनके इन्तेकाल के साथ जल्द मुन्हदिम हो गया। हफीज भाई की पैदाईश लखनऊ मेें नहीं हुयी लेकिन एक तवील अर्से से वह लखनऊ मेें मुकीम थे और यहीं के बाशिन्दे बन गये थे। उन्होेंने इस शहर की तहजीब, अदब और शाइस्तगी को अपने अन्दर इस तरह जज्ब कर लिया था कि कोई अजनबी भी यह नहीं कह सकता था कि वह लखनऊ के नहीं है। मरहूम रोजनामा अपना अखबार के चीफ एडीटर और सरपरस्त थे। अपना अखबार के कारेईन उनके तहरीरकर्दा इदारिये और मजामीन निहायत शौक से पढ़ते थे। उनके इदारियों की मकबूलियत का यह आलम था कि जब बीमारी या किसी और सबब से इदारिया नहीं लिख पाते थे तो लोगों के फोन आना शुरू हो जाते थे क्योंकि उनके इदारिये न सिर्फ हालाते हाजरा के मसाएल और उनका तजजिया होते थे। बल्कि ऐसे तारीखी वाकेआत भी उसमें होते थे जिससे आज की नस्ल नावाकिफ है।

हफीज भाई का 8 दिसम्बर 2019 की रात मेें इन्तेकाल हुआ था और 9 दिसम्बर की सुबह को ऐशबाग के कब्रिस्तान मेें तदफीन हुई थी। वह अपनी कब्र मेें सो गये लेकिन वह जिन्दा थे, जिन्दा हैं और जिन्दा रहेंगे। उनके अल्फाज उनके जुमले हमारे समाअतों मेें हमेशा गूंजते रहेेंगे।