ज़ीनत सिद्दीक़ी

आज अचानक राहत साहब के यू गुज़र जाने पर उनके तमाम आशिक सदमे में हैं. किसी को यकीन नहीं हो रहा कि महफिलों और मुशायरों की कई सालों तक रौनक रहे राहत इंदौरी अब इस दुनिया में नहीं रहे. राहत इंदौरी कोरोना काल में भी सोशल मीडिया के ज़रिए जागरूकता फैलाते देखे जाते रहे. अब उनके निधन के बाद उनको पसंद करने वाले तमाम लोग उन्हें उनके बेहतरीन शायरी के ज़रिए याद कर रहे हैं.

राहत इंदौरी की शायरी का मौज़ू सिर्फ वतन परस्ती या देश से मुहब्बत तक ही महदूद नहीं रहा. बल्कि उन्होंने हर तरह की शायरी की. इंसान दोस्ती के मौज़ू पर भी खूब शेर कहे. उनका कलाम एक ऐसे इंसान की शायरी है जो अपने सीने में धड़कता हुआ ऐसा दिल रखता है जिसमें ज़माने का दर्द-व-मुहब्बत मिलकर सिमटा हुआ है. इसीलिए तमाम-तर रुकावटों के बीच उन्होंने शम-ए-इंसानियत को रौशन रखा.

सदियों के साझा सफर पर उनकी गहरी नज़र थी. हां! ये बात सही है कि इस सफर में ऐसे कई पड़ाव दिखते हैं जहां मुहब्बत की जगह नफरतें अपने हाथों में सत्ता थामे हुए दिखती हैं. लेकिन मुद्दतों की इस लंबी यात्रा में ऐसी साझी विरासतों की बुनियाद पड़ी कि हर तरफ कई साझी परंपराएं, रिवायतें उठ खड़ी हुईं जो अब दो जिस्म एक जान बन गई हैं. जिसे अलग करना मुहाल है. तभी तो राहत इंदौरी कहते हैं:

उनकी शायरी में ग़म-ए-जानां के साथ ग़म-ए-दौरां भी है. वो मुहब्ब्तों के भी शायर हैं. वो इश्क और हुस्न के भी कायल हैं, लेकिन इंदौरी साहब इश्क में खोने के बजाए इश्क के वकार को गिरने नहीं देते.

राहत साहब की शायरी में कद्रों का एहसास है. वो किसी भी कीमत पर पुराने मूल्यों को गिरने नहीं देना चाहते. उनकी शायरी में उसे बचाने की शिद्दत दिखती है.

उनकी शायरी में बीते हुए वक्त का दर्द है. मौजूदा वक्त की बेबसी का एहसास है, लेकिन वो आने वाले वक्त को लेकर पुर्उम्मीद नज़र आते हैं.

भारत हो या पाकिस्तान, अरब देश हों या पश्चिमी देश अमेरिका, यूरोप, जहां-जहां भी हिंदू-उर्दू से प्यार करने वाले आबाद हैं, उनकी रूह में अपने देश की मिट्टी की सोंधी खूशबू की तड़प है, उन देशों की महफिलों में राहत इंदौरी के अशार गूंजते हैं.

राहत साहब के अशआर हमेशा उनकी याद दिलाते रहेंगे

उस की याद आई है साँसो ज़रा आहिस्ता चलो
धड़कनों से भी इबादत में ख़लल पड़ता है
ये ज़रूरी है कि आँखों का भरम क़ाएम रहे
नींद रक्खो या न रक्खो ख़्वाब मेयारी रखो

मेरी ख़्वाहिश है कि आँगन में न दीवार उठे
मेरे भाई मिरे हिस्से की ज़मीं तू रख ले

झुलस रहे हैं यहां छाव बांटने वाले
वो धूप है कि शजर इल्तेजाएं करने लगे

हम से पहले भी मुसाफ़िर कई गुज़रे होंगे
कम से कम राह के पत्थर तो हटाते जाते

हम अपनी जान के दुश्मन को अपनी जान कहते हैं
मोहब्बत की इसी मिट्टी को हिंदुस्तान कहते हैं

फिर वही मीर से अब तक के सदाओं का तिलिस्म
हैफ़ राहत कि तुझे कुछ तो नया लिखना था

अभी तो कोई तरक़्की नहीं कर सके हम लोग
वही किराए का टूटा हुआ मकां है मिया

अब के जो फैसला होगा वह यहीं पे होगा
हमसे अब दूसरी हिजरत नहीं होने वाली

मेरी ख़्वाहिश है कि आंगन में न दीवार उठे
मेरे भाई मेरे हिस्से की ज़मी तू रख ले

बुलाती है मगर जाने का नईं
वो दुनिया है उधर जाने का नईं

“मैं मर जाऊं तो मेरी अलग पहचान लिख देना
लहू से मेरी पेशानी पे हिन्दुस्तान लिख देना।
शाख़ों से टूट जाएँ, वो पत्ते नहीं हैं हम
आँधी से कोई कह दे कि औक़ात में रहे”

“आँख में पानी रखो होंठों पे चिंगारी रखो
ज़िंदा रहना है तो तरकीबें बहुत सारी रखो
उस आदमी को बस इक धुन सवार रहती है
बहुत हसीन है दुनिया इसे ख़राब करूं
बहुत ग़ुरूर है दरिया को अपने होने पर
जो मेरी प्यास से उलझे तो धज्जियां उड़ जाएं”

“किसने दस्तक दी, दिल पे, ये कौन है
आप तो अन्दर हैं, बाहर कौन है

ये हादसा तो किसी दिन गुजरने वाला था
मैं बच भी जाता तो एक रोज मरने वाला था

मेरा नसीब, मेरे हाथ कट गए वरना
मैं तेरी माँग में सिन्दूर भरने वाला था”

बेहद मशहूर ग़ज़ल


अगर ख़िलाफ़ हैं होने दो जान थोड़ी है
ये सब धुआँ है कोई आसमान थोड़ी है

लगेगी आग तो आएँगे घर कई ज़द में
यहाँ पे सिर्फ़ हमारा मकान थोड़ी है

मैं जानता हूँ के दुश्मन भी कम नहीं लेकिन
हमारी तरहा हथेली पे जान थोड़ी है

हमारे मुँह से जो निकले वही सदाक़त है
हमारे मुँह में तुम्हारी ज़ुबान थोड़ी है

जो आज साहिबे मसनद हैं कल नहीं होंगे
किराएदार हैं ज़ाती मकान थोड़ी है

सभी का ख़ून है शामिल यहाँ की मिट्टी में
किसी के बाप का हिन्दोस्तान थोड़ी है